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श्री कायस्थिति प्रकरण. (.१५ ) खीवेदना उदयवाळो अथवा नपुंसक वेदना उदयवालो कोइ प्राणी उपशम श्रेणीने विषे (आरुढ थइने) त्रण वेदनो उपशम करवाथी अवेदकपणानो अनुभव करीने पछी ते श्रेणीथी पडीने पोताना भवना वेदने एक समय सुधी अनुभवे, अने पछी बीजे समये देवताने विषे उत्पन्न थाय, त्यां (देव भवने विषे) तेने पुरुषपणुं ज होय छे. अहीं प्रथमयी आरंभीने उत्कृष्ट कायस्थिति कही छे तेनी अंदर जघन्य कायस्थिति तो मात्र स्त्रीवेद अने नपुंसकवेदनी ज बतावी छे. हवे तेनी अपेक्षाए बाकी रहेला देव अने नारकीने वर्जिने शेष तिर्यग गत्यादिने विषे जघन्य कायस्थिति अंतर्मुहूर्तनी जाणवी. कारण के तेमनुं आयुष्य जघन्यथी पण अंतर्मुहूत ज छे. तथा लब्धिनी अपेक्षाए अपर्याप्सने विष उत्कर्षथी कायस्थिति पण अंतमुहूर्तनी ज छे. कारण के तिर्यचो अने मनुष्यो जो के अपर्यासावस्थाए ज मरण पामीने फरी फरीथी अपर्याप्तपणे केटलाक भव सुधी निरंतर उत्पन्न थाय छे, तोपण तेओनी एक भवनी अपर्या. तावस्था लघुतर अंतर्मुहर्त प्रमाणनी होवाथी अपर्याप्त केटलाक भवे करीने उत्कर्षथी पण अपर्याप्तावस्था गुरुतर अन्तर्मुहूर्तना प्रमाणवाळी थाय छे. अहीं ( उत्कर्षथी पण ए ठेकाणे) 'अपि' एटले पण शब्द लख्यो छे, तेथी जघन्यथी पण अपर्याप्तावत्थामां देव · अने नारकीओने लब्धि अपर्याप्तपणानो अभाव होवाथी बाकीना (ते सिवायना ) नर अने - तिर्यंचोने विषे कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तनी ज के एम समजवु तथा पर्याप्त सूक्ष्म अने पर्याप्त वादर निगोदने विषे एण अपर्याप्तोने माटे कहेली जघन्य अने उत्कृष्ट स्थितिनी जेम भावना करवी, ते आ प्रमाणे-पर्याप्तावस्थाने आश्रीने सूक्ष्म पृथ्वीकायादिकने विषे जघन्यथी अने उत्कर्षः थी कायस्थिति अन्तर्मुहूर्तनीज छे, केमके त्यार पछी ते अवश्य