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________________ "विष्णोतेर्विशते ; स्याद् वेवेष्टे व्याप्ति कर्मणः विष्णुर्निरुच्यते सूर्यः सर्वं सर्वान्तरश्च यः ।।23 इस श्लोकमें विष्णुपद व्याख्यात है। विष्णु पदमें विष् व्याप्ती, विश् प्रवेशने या व्याप्ति कर्मा वेविष धातुका योग है। यहां विष्णु सूर्यका वाचक है जो सर्वत्र व्याप्त है। विष्णु पुराणमें भी विष्णु शब्दकी निरुक्ति प्राप्त होती है। “यस्माद्विष्टमिदं विश्वं तस्य शक्त्या महात्मनः तस्मात्स प्रोच्यते विष्णुः विशेर्धातोः प्रवेशनात् । । *24 इस श्लोकके अनुसार विष्णु शब्दमें विश् प्रवेशने धातुका योग है। वह सम्पूर्ण विश्वमें प्रविष्ट है। निरुक्तमें भी विष्णु शब्दका निर्वचन प्राप्त है। इसके अनुसार विष्णु शब्द विश् प्रवेशने धातुसे या वि + अश् व्याप्तौ धातुसे निष्पन्न होता है। वह सर्वत्र प्रविष्ट होता है या सर्वत्र व्याप्त रहता है। महाभारतके अनुशासन पर्व में - विष्णु शब्दके सम्बन्धमें कहा गया है – "वृहत्त्वाद्विष्णुरूच्यते' (5/70/3) इसके अनुसार विष्णु शब्दमें वृह धातु का योग माना जायेगा। विष्णु शब्दके इन निर्वचनोंके तुलनात्मक समीक्षणसे पता चलता है कि वेदमें प्रयुक्त विष्णु शब्द विष् व्याप्तौधातुसे निष्पन्न है। वृहदेवता, विष्णु पुराण एवं निरुक्तमें विष् धातुके अतिरिक्त विश् प्रवेशने धातुकी भी मान्यता हो गयी है। निरुक्त एवं वृहदेवतामें सूर्यके लिए विष्णु शब्दका प्रयोग हुआ है । वह अपनी किरणोंसे सर्वत्र व्याप्त है या सर्वत्र प्रविष्ट है। महाभारत में वृह धातुसे विष्णु शब्दको निष्पन्न माना गया है। वृत्र एक असुरका वाचक है। इसकी निरूक्ति वैदिक कालसे ही प्राप्त होती है। तैतिरीय संहितामें वृत्रके सम्बन्धमें कहा गया है – 'स इमॉल्लोकानवृणोत् यदिमॉल्लोकानवृणोत्तवृत्रस्य वृत्रत्वम्” इसके अनुसार वृत्र शब्दमें वृआवरणे धातुका योग है। उसने इन लोकोंको आवृत कर दिया था इसलिए वह वृत्र कहलाया | शतपथ ब्राह्मणमें वृत्रके संबंधमें कहा गया है -वृत्रो ह वा इदं सर्वं वृत्वा शिश्ये यदिदमन्तरेण द्यावापृथिवी । स यदिदं वृत्वा शिश्ये तस्माद् वृत्रो नाम । 28 यहां वृत्वासे वृत्रका सम्बन्ध स्पष्ट है । वृत्र नाम पड़ने का कारण सभीको आवृत कर लेना है। यह निर्वचन कर्माश्रित है। ४७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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