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औदासिन्य है। लौकिक संस्कृतमें वृहस्पति देवगुरूको कहा गया है।३२ वैदिक इण्डेक्समें वृहस्पतिको स्तुतिके अधिपति एक देवताका नाम माना गया है।३३ वायुके अर्थमें वृहस्पति शब्दका प्रयोग ऋग्वेदमें प्राप्त होता है।३४ व्याकरणके अनुसार यह वृहतां पति: (वृहतां वाचां पतिः वृहस्पति: सुडागम होकर निपातित होता है।३५
(१६) चमस :- इसका अर्थ होता है यज्ञपात्र या वह पात्र जिसमें भोजन किया जाए। निरुक्तके अनुसार - चमन्त्यस्मिन्निति इस पात्र में खाते हैं। इसके अनुसार इस शब्दमें चमु अदने धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार चमु अदने धातुसे असच् प्रत्यय कर चमसः शब्द बनाया जा सकता है।३६ आज कलका प्रचलित चमच शब्द इससे भिन्न नहीं। लेकिन चमस निश्चय ही चमच की अपेक्षा बड़ा पात्र रहता होगा। चमचसे खाना खाते हैं तथा वैदिक कालमें चमस पात्र में खाना खाते थे। चमससे साम्य रखने वाला चमच शब्दमें आजकल अर्थ संकोच माना जायगा।
(१७) ब्रह्मणस्पति :- इसका अर्थ होता है-मेघ, जल रक्षक वायु। निरुक्तके अनुसार- (१) ब्रह्मणः पाता वा यह अन्नका रक्षक है। ब्रह्मण: अन्नका वाचक है इसके अनुसार ब्रह्मणः +पा रक्षणे धातुके योगसे ब्रह्मणस्पतिः शब्द निष्पन्न होता है। (२) ब्रह्मणः पालयितावा यह अन्नका पालक है। इसके अनुसार ब्रह्मण:+ पा पालने धातके योगसे ब्रह्मणस्पति:शब्द निष्पन्न होता है। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है|भाषाविज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा। द्वितीय निर्वचनमें किंचित् ध्वन्यात्मक औदासिन्य है,इसका अर्थात्मक महत्व है।व्याकरणके अनुसार ब्रह्मण:पतिः ब्रह्मणस्पति-सुडागमकर निपातित होगाण्इस निर्वचनका आधार सामासिक है।
(१८) क्षेत्रस्य पति :- इसका अर्थ होता है- क्षेत्ररक्षक (वायु)। निरुक्त के अनुसार क्षेत्रस्यपतिः क्षेत्रं क्षियतेर्निवास कर्मणस्तस्य पाता वा पालयिता वा।३८ क्षेत्र शब्द निवासार्थक क्षि धातके योग से निष्पन्न होता है, क्योंकि इसमें निवास किया जाता है। पति शब्द पा रक्षणे या पा पालने धातुके योगसे निष्पन्न होता है। प्रथम निर्वचनमें क्षेत्रस्य +पा रक्षणे धातु है तथा द्वितीय निर्वचन में क्षेत्रस्य + पा पालने धातुका योग है। इसके अनुसार इसका अर्थ होगा क्षेत्र का रक्षक या पालक। इन निर्वचनों का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा। मैकडोनल
४५२:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क