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________________ निरुक्तमें ओषधिःका प्रयोग वनस्पतिके अर्थमें प्राप्त होता है।८१ (५७) अरण्यानी :- यास्कके अनुसार इसका अर्थ होता है अरण्यकी पत्नी। निरूक्तके अनुसार अरण्यान्यरण्यस्य पत्नी। अरण्यमपाणं भवति ग्रामात्।४९ अर्थात् अरण्य गांव से दूर होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें अप +ऋ गतौ धातुका योग है। अप +ऋ- अर= अपार्ण अरण्य। (२) अरण्यं अरमणं भवतीति वा४९ अर्थात् वह अरमणीय होता है सुखद नहीं होता। इसके अनुसार इस शब्दमें अ-(न) + रम् धातुका योग है। ध्वन्यात्मक दृष्टिसे प्रथम निर्वचन संगत है। अर्थात्मक आधार दोनों निर्वचनोंके उपयुक्त हैं। व्याकरणके अनुसार अरण्य शब्द ऋ गतौ धातुसे ण्य प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।८३ अरण्यानी शब्द अरण्य शब्दमें डीष प्रत्यय कर बनाया गया जो जंगल की पत्नी अर्थका वाचक है। पाणिनी अरण्यानीका अर्थ भयानक जंगल करते हैं। महारण्य के अर्थमें ही अरण्यसे डीष प्रत्ययका विधान पाणिनिको अभीष्ट है। वररुचि भी हिमारण्ययोमहत्त्वे वार्तिक के द्वारा उक्त अर्थको ही स्पष्ट करते हैं।८४ (५८) श्रद्धा :- चतुर्विध पुरुषार्थों में विना विपर्यय के यथावत् समझने वाली बुद्धि का नाम श्रद्धा है। निरुक्तके अनुसार-श्रद्धा श्रद्धानात्। अत सत्यं धीयतेऽस्यां सा श्रद्धा ४९ अर्थात् श्रत सत्यका वाचक है वह इसमें धारण किया जाता है इसलिए श्रद्धा कहलाती है।८५ इसके अनुसार इस शब्दमें अत् +धा धारणे धातुका योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार श्रत धा+अङ् +टाप् = अद्धा बनाया जा सकता है।८६ (५९) ऋक्षर :- इसका अर्थ होता है कांटा। निरुक्तके अनुसार ऋक्षरः कण्टकः ऋच्छते:४९ अर्थात् ऋक्षर शब्द ऋच्छ गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यह वृक्ष आदिके ऊपर उमरा होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार ऋक्ष् धातु से अच् = ऋक्ष +र= ऋक्षरः बनाया जा सकता है। (६०) कण्टक :- इसका अर्थ होता है- कांटा। निरुक्तके अनुसार-कण्टक: कन्तपोवा४९ अर्थात् यह शब्द कम् + तप् धातुके योगसे निष्पन्न है, क्योंकि मैं किसे कष्ट दूं ऐसा सोचकर ठहरने वाला है। अतः कम् + लप् = कन्तप- कण्टक। (२) कृन्तते९ि अर्थात् यह शब्द कृती छेदने धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यह छेद देता है या चुम जाता है। (३) कण्टतेर्वा स्याद्गतिकर्मण: अर्थात् यह गत्यर्थक कट् धातु के योग से निष्पन्न होता है क्योंकि यह वृक्ष के ४४०:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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