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________________ इसके अनुसार इस शब्दमें ख +शीङ् स्वप्ने धातुका योग है। ख का अल्प प्राण काशी-कश-कशा (३) क्रोशतेर्वा अर्थात् मनुष्यके बोलने का यही आधार है। इसके अनुसार इस शब्दमें क्रुश् आह्वाने धातुका योग है क्रुश् - कशा। काशृ , कृष् तथा क्रुश् धातुसे कशा का निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार रखता है इन्हें भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे उपयुक्त माना जायगा। ये धातुज सिद्धान्त पर आधारित हैं। शेष निर्वचन अर्थात्मक महत्व रखते हैं। व्याकरणके अनुसार कश् गति शासनयोः धात्से अच्४२ +टाप प्रत्यय कर कशा शब्द बनाया जा सकता है। लौकिक संस्कृतमें कशाका प्रयोग वाणीके अर्थमें प्रायः नहीं देखा जाता। खशया से कशा वाणी माननेका उद्देश्य संभवतः वाणीकी नित्यताका उपस्थापन है। यों तो दुर्गाचार्यने मुखसे निःसृत होनेके कारण वाणीको मुखाकाशमें सोने वाली माना है। वाणी का उत्पति स्थान हृदयाकाशसे मुखाकाश तक व्याप्त है इसमें संदेह नहीं, लेकिन उच्चरित शब्दोंका स्थान भी आकाश ही है। जिस प्रकार आकाश नित्य एवं अविनाशी है उसी प्रकार उसका गुण शब्द भी नित्य एवं अविनाशी है। वैज्ञानिकोंने भी आकाशमें ईथर मानते हए शब्दकी उत्पति एवं प्रस्तुतिका स्थान इसे ही स्वीकार किया है। आकाशमें इथर रहने के कारण वह ध्वनि तरंगों को धारण करनेकी शक्तिसे समन्वित है। शब्द ईथर के तरंगों में विस्तृत होता जाता है। वह वीची तरंग न्यायकी भांति या कदम्वगोलक न्यायकी भांति उत्पन्न होता है।४३ (३२) सक्थि :- यह हड्डीका वाचक है। निरुक्तके अनुसार सक्थि: सचतेरासक्तोऽस्मिन् काय:३२ अर्थात् यह शब्द षच समवाये धातके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि शरार इसी पर आसक्त रहता है। हड्डीके विना शरीर धारण संभव नहीं। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरणके अनुसार संज् संगे धातुसे क्थिन्४४ प्रत्यय कर सक्थिः शब्द बनाया जा सकता है। (३३) जघनम् :- इसका अर्थ होता है जांघ। निरुक्तके अनुसार जघनं जङ्घन्यते३२ अर्थात् यह शब्द हन् हिंसागत्योः धातुके योगसे निष्पन्न हुआ है - हन् - हन् = जहन= जघन। घोड़े के जघन को बार बार पीटा जाता है। इस हनन क्रिया की प्रधानता के चलते जघन कहलाया। अथवा वह गतिमान होता है इसलिए भी जघन माना गया। सामान्य जघन को गत्यर्थक हन् से मानना ही संगत होगा। हन् हिसार्थक से मानने पर जघन में अर्थ संकीर्णता रहेगी। यास्क के निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरण के अनुसार हन् + यङ् ४३२:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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