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निघण्टुके पंचम अध्यायके तृतीय खण्डमें ३६ शब्द संकलित है। ये सभी शब्द देवताओंकी स्तुतिमें प्रयुक्त हैं साथ ही ये एक दूसरे के पर्याय नहीं बल्कि स्वतंत्र हैं।
निरुक्तके नवम अध्यायमें कुल ७६ निर्वचन प्राप्त होते हैं। इन निर्वचनों में यास्कने निघण्टुके दैवत काण्डके तृतीय खण्डमें पठित ३६ शब्दोंके निर्वचन तो प्रस्तुत किए ही हैं प्रसंगत: प्राप्त ४० अन्य शब्दोंकी भी व्याख्या की है। सभी निर्वचन भाषा विज्ञान एवं निर्वचन प्रक्रियाके अनुसार महत्त्वपूर्ण हैं। देवताओंके नामोंके निर्वचनसे उनके स्वरूप इतिहास, कर्म तथा निवास आदिका संकेत स्पष्ट होता है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे नवम अध्यायके सर्वथा पूर्ण निर्वचनों में वारि, शकुनि, मंगल,गृत्समदः, मण्डूकः, मण्डः, अक्षा:, इरिणम्, मौजवतः, मुञ्ज, इषीका, विभीदक:, जागृविः, ग्रावाणः, घोष: नाराशंसः, अतूर्त:, रथ:, दुन्दुभिः इषुधिः, संका, हस्तघ्नः, पुमान्, धनुः, ज्या, इषुः कशा, सक्थि:, जघनम्, आजेः,सुभर्वम्,प्रधनम्, द्रुघण:, पृतनाज्यम्, मुद्गलः, भृम्यश्वः पितुः, तविषी, गंगा, सरस्वती,मरुद्धृधा,आर्जिकीया, विपाट्, सुषोमा, आप:, औषधि:, अरण्यानी, श्रद्धा,ऋक्षरः,कण्टकः,अग्नायी, मुसलम्, हविर्धाने, आर्ली, शुनासीरो, देवीयोष्ट्री, देवी ऊर्जाहुती शब्द परिगणित हैं। इन शब्दोंके एक से अधिक भीनिर्वचन प्राप्त होते हैं। कुछ शब्दोंके एकाधिक निर्वचन भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे अपूर्ण भी हैं।
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भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे अपूर्ण निर्वचन हैं- श्लोकः, बालः, चिश्चा, शुतुद्री, परुष्णी, असिक्नी एवं वितस्ता । ध्वन्यात्मक शैथिल्य वाले निर्वचन- मण्डूकः, ग्रावाणः,श्लोकः,बालः, स्थः, मुद्गलः, यमुना, शुतुद्री, परुष्णी, असिक्नी, अरण्यानी और आर्ली हैं।यास्कने अश्व:, सुखम्, अभीशवः, वृषम:, सिन्धुः रात्रिः, पृथिवी, अप्वा, धावापृथिवी, विपाटशुतुद्री आदि शब्दोंके निर्वचनमें पूर्वव्याख्यात कहकर काम चला लिया है। वस्तुत: इन शब्दोंके निर्वचन पूर्व ही किए जा चुके हैं।
यास्क मंगल शब्दके निर्वचनमें अंगल शब्दको उपस्थापित करते हैं। अंगल से मंगल शब्दमें आदि व्यंजनागम माना जायगा । शकुनि शब्दके निर्वचनमें सांस्कृतिक आधारको अपनाया गया है। दुन्दुभिः शब्दका निर्वचन शब्दानुकरण पर आधारित है। दुम्दुम् शब्द इस वाद्य विशेषसे निकलता है। फलत: इसे दुन्दुभि: कहते हैं। दुन्दुभि शब्दके निर्वचनोंमें सादृश्य एवं धातुज सिद्धान्तका भी आश्रय लिया गया है। वितस्ता एवं विपाट् नदियोंके निर्वचन ऐतिहासिक महत्त्व रखते हैं। कृन्त से कण्टक शब्द में मूर्धन्यीकरण का सिद्धान्त प्रतिपादित है।
इस अध्यायके प्रत्येक शब्दोंका निर्वचन द्रष्टव्य है :
४२२: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क