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________________ (११) यह्व :- यह महान् का वाचक है। निरुक्तके अनुसार- यह इति महतो नामधेयं यातश्च हूतश्च भवति२२ अर्थात् यह गया हुआ एवं पुकारा हुआ होता है। इसके अनुसार इस शब्दमें दो धातुओंका योग है। या प्रापणे + हु दानादनयोः धातुओं के योग से यह्वः शब्द बनता है। इन दोनों धातुओंके धात्वादि वर्ण ही शेष रहते हैं। इसका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। अर्थात्मक संगतिके लिए ही दो धातुओं की कल्पना की गयी है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं मना जायगा। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्रायः नहीं देखा जाता। (१२) बर्हि :- यह कुश एवं अग्निका वाचक है। निरुक्तके अनुसार - बर्हिः परिवहणात्२२ अर्थात् यह शब्द वृह वृद्धौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है। बढ़ने (वृद्धि होने) के कारण कुशको वर्हि कहा जाता है कुश यज्ञवेदीकी चारो ओर फैलाया जाता है। अग्नि भी बढ़ी हुई होती है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। लौकिक संस्कृतमें भी इसका प्रयोग उक्त अर्थों में प्राप्त होता है।२२ व्याकरणके अनुसार बृह वृद्धौ धातुसे इस् प्रत्यय कर वर्हिस् शब्द बनाया जा सकता है।३४ (१३) बितरम् :- इसका अर्थ होता है खूब फैला हुआ, काफी विस्तृत। निरुक्तके अनुसार- वितरम् विकीर्णतरमितिवा विस्तीर्णतरमितिवा२२ अर्थात् यह विकीर्णतर होता है या विस्तीर्णतर होता है। प्रथम निर्वचनमें वि+कृ विक्षेपे + क्त= कीर्ण+तरम्-वि+कीर्णतरम् - वितरम् तथा द्वितीय निर्वचन में विस्तीर्ण+तरम् वि+तृप्लवनसंतरणयो:+तीण+तरम् विस्तीर्णतरम् वितरम् है। इन निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्त्व है। दोनों निर्वचनोंमें धातुका सर्वापहारी लोप हो गया है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे बड़े शब्दों के कुछ वर्ण लुप्त हो जाते हैं इसका कारण प्रयत्न लाघव हैं। याचामि का यामि३५ वैदिक प्रयोग भी इसी प्रकार का है। लगता है विकीर्णतरम् या विस्तीर्णतरम् भी इसी प्रकार प्रयत्न लाघव के परिणाम स्वरूप वितरम् हो गया है। (१४) वरीय :- इसका अर्थ होता है अधिक से अधिक, बहुत अधिक। निरुक्तके अनुसार वरीयो वरतरमुरुतरं वा२२ अर्थात् यह शब्द वरतर या उस्तरका वाचक है। उरूतरका वरीय उ से व यण का परिणाम है। यण व्याकरण का पारिभाषिक शब्द है इ उ ऋ लू का य व रल होना यण कहलाता है। अन्तस्थ ध्वनियोंका स्वरमें परिवर्तन भाषा वैज्ञानिक आधार रखता है। स्वर वर्ण भी अन्तस्थ वर्णमें परिवर्तित हो जाते हैं जिसे हम सम्प्रसारण की संज्ञा देते हैं। यहां तरप् के योग में ही ईयस् प्रत्यय हुए हैं। यास्क निर्वचन ४१५:व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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