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११२. विस्तीर्णः इतश्चेतश्च सर्वतो यः प्राप्तः स विष्पितः नि. दु.वृ. ६४, ११३. ऋग्वेद कोष- पृ. ५४२, ११४. हिन्दी निरुक्त- पृ. २०८, ११५. उदकमभिधेयम्। यतस्तत् तूर्णमाप्नोति नि. दु.वृ. ६४, ११६. ऋजुरपि अस्मादेव प्रसाधनार्थात् ऋ ञ्जतेर्वोद्धव्य: नि. दु.वृ. ६४, ११७. शकृता- गोमयेन इतं युक्तम् भवति- नि.दु.वृ. ६४, ११८. शकादिभ्योऽटन्- - उणा ४।८१, ११९. नि.दु.वृ. ६।४, १२०. अणश्च- उणा. ११८, १२१. नि. ५१४, १२२. नि. ७३, १२३. क्रू च- उणा २/२१, १२४ इगुपधज्ञा- अष्टा. ३1919३५, १२५. नि. ६।५, १२६. नि. दु.वृ. ६५, १२७. द्र. हिन्दी निरुक्त पृ. २१२, १२८. हला. पृ. १४२ (अष्टा. ३1२1३), १२९. निघण्टु तथा निरुक्त पृ. २०१, १३०. ऋ. ८ १२०, सा. १९३०७ आप श्रौ. सू. ८।७।१० मान. श्रौ. सू. १।७।२।१८, १३१. ऋ. १/११७/२१, १३२. मेघ. १४९, १३३. खर्जिपिंजादिभ्यऊरोलचौ- उणा. ४।९० ( लंगेर्वृद्धिश्च ) प्रज्ञाद्यण्- अष्टा. ५/४१३८, १३४. मधो अन्योन्यं भक्षणाय माधन्ति हृष्यन्तीतिवा नि. दु.वृ. ६।५, १३५. ऋतज्यजि- उणा. ४/२, १३६. शेषे - अष्टा. ४/२ ९२, १३७. सप्तमर्यादा : कवयस्ततक्षुतासामेकामिद्भ्यंहुरोगात्-ऋ. १०/५/६, १३८. स्तेयं तल्पारोहणं ब्रह्महत्याभ्रूणहत्यासुरापानं दुष्कृतस्य कर्मणः पुनःपुनः सेवां पातकेऽनृतोद्यमिति नि. ६।५, १३९. अभि. ६।२५ (अस्मात्परं बत...), १४०. बतो बतासि यम नैव ... १०।१०।१३ अथर्व १८1919५, १४१. वने न वायो न्यधायि चाकन - ऋ. १०।२९।१ अथर्व. २०।७६ १, १४२. नि. दु.वृ. ६५, १४३. सुप आत्मनः क्यच्-अष्टा. ३।१।८, १४४. नि. ६ ६ १४५. विपरीतात् कुटते : विकटः स्यात् कुब्जीभूतइत्यर्थ: नि. दु.वृ. ६६, १४६. वामं वामं त आदुरे देवो ददात्वर्यमा । वामं पूषा वामं भगो वा देवः करूलती ॥ ऋ. ४ ३० २४, १४७. नि. ६ ६, १४८. अष्टा. ३।३।१९, १४९. नि. १1३, १५०. नि. ४ ३ ६२, ६६, १५१. ऋ. 91491१४३, १५२. अष्टा. ५/२/१२३, १५३. यस्मात्ते किमपि न कुर्वन्ति देव पितृ मनुष्यादीनामुपक्रियाभिः । तस्मात्ते कीकटा उच्यन्ते । अथवा ये नास्तिका सन्तः क्रियाभि: देवतातिथिसेवारूपाभिः किम्- को लाभः इत्येवं वदन्ति ते कीटाः अनार्याः । नि.दु.वृ. ६/६, १५४. ऋ. ३1५३ १४, १५५. उल्वादयश्चउणा. ४।९५, १५६. स हि यस्मात् वहु संयोगात् गण्यते - नि. दु.वृ. ६।६ .
ऋ.
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३९३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
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