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________________ वाला काण कहलाता है। काणोऽविक्रान्तदर्शन : १४४ के दो पदविच्छेद किए जा सकते हैं- १- अविक्रान्त दर्शन :- अविक्रान्तमपगतं दर्शनं यस्य सः अविक्रान्त दर्शनः अर्थात् जिसे कम दिखलाई पड़ता है। २- विक्रान्तदर्शन:- विक्रान्तं विगतं दर्शनं यस्यसः विक्रान्त दर्शन: अर्थात् जिसका एक नेत्र नहीं है। इसके अनुसार इस शब्दमें क्रम् धातुका योग है- क्रम् + घञ् = क्रामः काणः । यास्क स्वयं भी इसके लिए निर्वचन प्रस्तुत करते हैं- कणैतेर्वास्यादणू भावकर्मण: : १४४ अर्थात् यह शब्द अल्पार्थक कण् धातुके योगसे निष्पन्न होता है- कण् +घञ् = काण: । मात्राणूभावात्कणः, दर्शनाणूभावात्काण:१४४ अर्थात् मात्राके अणुभाव, स्वल्प भाव को कण कहा जाता है तथा दर्शन शक्तिकी अल्पतासे काण कहलाता है। यास्कका निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधारसे युक्त है। यह आख्यातंज एवं सादृश्य सिद्धान्त पर आधारित है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा, आचार्य औपमन्यव का निर्वचन ध्वन्यात्मक आधार से युक्त नहीं है। इसका अर्थात्मक महत्त्व है। यास्कका निर्वचन औपमन्यवके निर्वचनकी अपेक्षा अधिक भाषा वैज्ञानिक है। व्याकरणके अनुसार कण् धातुसे घञ् प्रत्यय कर काण: शब्द बनाया जा सकता है। (१८५) विकट :- इसका अर्थ होता है विकृत चाल । यास्क प्रथमतः आचार्य औपमन्यवके निर्वचन को उपस्थापित करते हैं। औपमन्यवके अनुसार-विकटः विक्रान्तगतिरित्यौपमन्यव: १४४ अर्थात् विक्रान्त गति वाला विकट कहलाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें वि + क्रम् धातुका योग है वि + क्रम् = विकटः । इस निर्वचनमें ध्वन्यात्मकता का अभाव है। अर्थात्मक आधार इसका संगत है। यास्क के अनुसारकुटतेर्वास्यात् विपरीतस्य विकुटितो भवति १४४ अर्थात् यह शब्द वि + कुट कौटिल्ये धातुके योगसे निष्पन्न होता है- वि + कुट् = विकुट विकटः क्योंकि यह विकुटित होता है कुछ कुटिल होता है। १४५ यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसे संगत माना जायगा । यास्कका निर्वचन औपमन्यवके निर्वचनकी अपेक्षा अधिक भाषा वैज्ञानिक है । व्याकरणके अनुसार वि + कट् + अच् प्रत्यय कर विकट : शब्द बनाया जा सकता है। (१८६) पराशर :- यह एक ऋषिका नाम है। शब्दार्थके अनुसार इसे अनेकार्थक कहा जा सकता है। निरुक्तके अनुसार १- पराशरः पराशीर्णस्य वशिष्टस्य स्थविरस्य जज्ञे।१४४ अर्थात् दुर्गुणोंके नाशक एवं वृद्धवशिष्ट ऋषि से उत्पन्न पराशर कहलाता ३८५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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