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(द्र०) शु० यजु0 118,32.ऋ0 6 175 19,33. नि0 3 19 34. शु० यजु0 1 |20. 35. का0 सं016, 36."विश्वं स देव, प्रतिवारमग्ने, धत्तेधान्यं प्रत्यते वसव्यैः” ऋ0 6113 14, 37.धाना भाष्ट्र हिता भवन्ति । फले हिता भवन्तीतिवा-नि0 5 112, 38. शु० यजु0 1130, 39. अथ यद् विषितोभवति, तद्विष्णुर्भवति, विशतेर्वा, व्यश्नोतेर्वा नि0 12 12, 40. शु० यजुः 2 13, 41. द्र0 मही0 भाष्य-शु0 यजु० 2 13, 42. ऋ03 14 13, 10/17 19.43. नि0 8|2. 44. शु० यजुः 11 17, 45. तै0 सं0 115 11 11, 46. यत्समरुजतद्रुद्रस्य रूद्रत्वम् - का0 सं0 25 11, 47. नि० 1011, 48. काठ0 सं0 7 12, 49. नि0 114 (प्रथनात् पृथिवीत्याहुः), 50. मैत्रा० सं0 118 12, 51. नि0 7 15, 52. सा0 वे0 5 12 1815,53. शु० यजुः 113, 54. 'पवित्रं पुनातेः नि0 5 12, 55. सा0 वे0 सं0 446, 56. ऋ0 117 11.8 132 11, 8171114,57. सा0 सं0 451,58. सा0 सं0 1870, 59. नि0 8 12.60. अथर्व० सं0,61. नद्यः कस्मात् ? नदना इमा भवन्ति शब्दवत्यः नि0 2 17,62. अथर्व सं03 113 12,63. आपःआप्नोते. नि093,64. त्वं त्यांन इन्द्रदेव चित्रामिषमापो न पीपयः परिज्मन्’ – ऋ0 1163 18, पिन्वन्त्यपो मरुतः सुदानवः पयो तवद्विदथेष्वाभुवः - ऋ0 116416, तस्मा आपः संयतः दीपयन्ति, तस्मिन्क्षत्रममवत्वेषमस्तु - ऋ0 5 134 19.65. अथर्व सं074894, 66. द्र० सा0भा0- अथर्व071894,67. ऋ06115 17.68. एधोऽस्येधिषीमहि समिदसि तेजासि तेजोमयि धेहिसमाववर्ति पृथिवी समुषाः समुसूर्यः । समुविश्वमिदं जगत्। वैश्वानर ज्योतिर्भूयासं विभून्कामान्व्यश्नवै भूः स्वाहा ।। 20 |23, 69. अथर्व० 411716,70.अथर्व0111011,71. विश्वस्य हि प्रचेतसा वरुण मित्रराजथः ईशाना पिप्यतं धियः ।। ऋ0 5 17112,72.नि0 2 11।
(ख) ब्राह्मण ग्रन्थों में निर्वचनोंका स्वरूप
वेदोंकी व्याख्याका समुदाय ब्राह्मण भाग है। प्रत्येक वेदके अलग अलग ब्राह्मण ग्रन्थ हैं। प्रायः सभी ब्राह्मण ग्रन्थोंमें निर्वचनकी उपलब्धि होती है। वेदार्थ प्रकाशनके लिए निर्वचन उत्तम प्रक्रिया है । वेदमें निर्वचनके दो प्रकार दृश्य हैं। प्रत्यक्ष वृत्याश्रित एवं परोक्ष वृत्याश्रित । ब्राह्मण ग्रन्थोंमें अतिपरोक्ष वृत्याश्रित निर्वचन भी उपलब्ध होते हैं । यद्यपि अतिपरोक्ष वृत्ति टीकाकारोंकी कल्पना मालूम पड़ती है क्योंकि ब्राह्मण ग्रन्थों में जिसे परोक्षवृत्ति कहा गया है
23 : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क