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________________ सप वाला होता है। १०१ सप का अर्थ होता है उपस्थेन्द्रिय। जिसका उपस्थेन्द्रिय सदा उत्थित रहता है१०२ उसे निष्वपी कहा जाता है। इस निर्वचन के अनुसार निष्षपी शब्द में नि: + सप् स्पर्शने धातु का योग है! इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे संगत माना जायगा । यह सामासिक शब्द है निर्गत: सप: यस्य स निष्षपी । (८१) सप :- यह उपस्थेन्द्रिय का वाचक है। निरुक्तके अनुसार-सपः सपते: स्पृशति कर्मा८५ अर्थात् सपः शब्द स्पर्श करना अर्थ वाले सप् धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इससे स्त्री योनि स्पर्श की जाती है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञान के अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा । व्याकरण के अनुसार-सप् स्पर्शने + अच् प्रत्यय कर सपः शब्द बनाया जा सकता है। (८२) तूर्णाशम् :- इसका अर्थ होता है-जल। निरुक्त के अनुसार तूर्णाशम् उदकं भवति। तूर्णमश्नुते ५ अर्थात् यह शीघ्र ही व्याप्त हो जाता है। इसके अनुसार इस शब्द में तूर्णम् +अशु व्याप्तौ धातु का योग है तूर्ण+अश् तूर्णाश्- तूर्णाशम् । इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायेगा। लौकिक संस्कृत में इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता। (८३) क्षुम्पम् :- यह अहिच्छत्र का वाचक है। अहिच्छत्र वर्षाकाल में छाते के समान पृथ्वी से फूट पड़ने वाला अंकुर विशेष तथा केंचुल (सर्पत्वक) को कहते हैं। निरुक्त के अनुसार-क्षुम्पमहिछत्रकं भवति । ८५ यत्क्षुम्यते अर्थात् जी क्षुब्ध होती है छूते ही डोलता है अथवा टूट जाता है। इस निर्वचन के अनुसार क्षुम्पम् शब्दमें क्षुम् संचलने धातुका योग है-क्षुभ्-क्षुम्प । ध्वन्यात्मक दृष्टि से इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जायगा। अर्थात्मक आधार इसका संगत है। लौकिक संस्कृतमें इसका प्रयोग प्राय: नहीं देखा जाता। (८४) अंग :- यह शीघ्र का वाचक है। निरुक्तके अनुसार अंग इति क्षिप्र नाम । अंचितमेवांकितं भवति८५ अर्थात् अंग क्षिप्र का नाम है तथा अञ्च ही अंक होता हुआ अंग बन गया है। इसके अनुसार यह शब्द अञ्च् गतौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है-अञ्च अंक अंग। अञ्च् या अंक् लक्षणे धातु से स्पष्ट है यह शीघ्र लक्षित होता है। इस निर्वचन का ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। लौकिक संस्कृतमें अंग शब्द क्षिप्र अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता । व्याकरण के अनुसार अगि गतौ +अच् प्रत्यय कर अंगम् शब्द बनाया जा सकता है। ३१६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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