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परिधिरस्यS ग्निरिडईडितः । । "40
इस मंत्रमें इड शब्द ईडित क्त प्रत्ययान्त शब्दसे स्पष्ट हो जाता है इड् स्तुतौ धातुसे इड शब्द की व्युत्पति मानी जायगी । महीधरने इड का अर्थ अग्नि माना है जो ईड् स्तुतौ धातुसे निष्पन्न है।" ऋग्वेदमें भी इड अग्निका ही वाचक है।42 यास्कने भी इडको ईड् स्तुतौ धातुसे ही निष्पन्न माना है । 13 यह परोक्ष वृत्याश्रित निर्वचन है ।
6. देवसवितः प्रसुव यज्ञं प्रसुव यज्ञपतिं भगाय
दिव्यो गन्धर्वः केतपूः केतं नः पुनातु वाचस्पतिर्वाचं नः स्वदतु ।। 44 इस मंत्रमें केतपू: शब्द का निर्वचन प्राप्त होता है | केत+पूः पवने धातुके योगसे केतपूः शब्द निष्पन्न होता है। केतं + पुनातु शब्दोंके प्रयोग केतपू: के सम्बन्धको स्पष्ट कर देते हैं । यह निर्वचन प्रत्यक्ष वृत्याश्रित है। केतुं उपपदके साथ पू पवने धातुका योग इसमें स्पष्टतः दृष्टिगत है ।
यजुर्वेद ऋग्वेदके बहुत सारे मंत्र पठित हैं। जिनमें मंत्रस्थ शब्दोंके निर्वचन दोनोंमें प्राप्त हैं। यजुर्वेदकी शाखा कृष्ण यजुर्वेद ब्राह्मण संकुल है। परिणामतः मन्त्रोंमें व्याख्यात शब्द तो दोनों शाखाओंमें प्रायः एक हैं । कृष्ण यजुर्वेदके मन्त्रोंकी व्याख्या भागमें भी कुछ शब्दोंके निर्वचन प्राप्त होते हैं। इन निर्वचनोंमें भारतीय निर्वचन सिद्धांतका अनुकरण हुआ है। स्वर लोप, व्यंजन लोप, ह्रस्वीकरण दीर्घीकरण, अल्पप्राणीकरण, महाप्राणीकरण आदि वनिपरिवर्तनके सिद्धांत इन निर्वचनोंमें भी दृश्य होते हैं। कृष्ण यजुर्वेदके निर्वचनका किंचित् परिदर्शन अपेक्षित है :
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1. "सोऽरोदीत् यदरोदीत् तद्रुस्य रूद्रत्वम् 45
यहां अरोदीत् क्रियाका सम्बन्ध रूद्रसे स्पष्ट प्रतिलक्षित है अरोदीत् क्रियामें रूद् अश्रुविमोचने धातुका योग है। रूद्र में भी रूद् धातुका योग है । यहां रूद्रत्वका कारण भी स्पष्ट किया गया है। यह प्रत्यक्ष वृत्याश्रित निर्वचन हैं कृष्ण यजुर्वेद की अन्य शाखाओंमें भी रूद्रका निर्वचन प्राप्त होता है ।" यास्क भी रूद्रके इस निर्वचनसे सहमत हैं। 7
2.
"यदप्रथत तत्पृथिवी *48
यहां पृथिवी व्याख्यात है। पृथिवी शब्दमें प्रथ् विस्तारे धातुका योग है ।
१८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क