SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ होता है (उसके अन्दर । भाषा विज्ञान एवं निर्वचन प्रक्रियाके अनुसार इसे उपयुक्त निर्वचन नहीं माना जाएगा। (४०) द्युम्नम् :- इसका अर्थ होता है यश एवं अन्न । निरुक्तके अनुसार - द्युम्नम् द्योतते : ' अर्थात् द्युम्न शब्द द्युत् दीप्तौ धातुके योगसे निष्पन्न होता है, क्योंकि यश एवं अन्न दोनों दीप्त होते हैं। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा । द्युम्न शब्दमें म्न को प्रत्यय माना जाएगा। लौकिक संस्कृतमें यह शब्द धनका वाचक है | ५६ व्याकरणके अनुसार दिव् + म्नाः+कः प्रत्यय कर घुम्नम् शब्द बनाया जा सकता है । ५७ (४१) पवित्रम् :- यह अनेकार्थक है। इसका शाब्दिक अर्थ है पूत । निरुक्तके अनुसार पवित्रं पुनाते:५८ अर्थात् पवित्रम् शब्द पुञ् पवने धातुके योगसे निष्पन्न होता है । मन्त्रको भी पवित्र कहा जाता है क्योंकि इससे देवता लोग अपनेको सदा पवित्र करते हैं। पवित्र करने वाले गुणसे युक्त होनेके कारण ही रश्मि, जल, अग्नि, वायु, सोम, सूर्य एवं इन्द्र पवित्रके नामसे अभिहित हैं। सूर्य रश्मि स्पर्श मात्रसे ही प्रत्येक वस्तुओंको पवित्र कर देती है। इसी प्रकार जलसे भी लोग पवित्र हो जाते हैं। अग्नि वायु सोमादिमें भी इसी प्रकार के पवित्र करने वाले गुण हैं। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार पुत्र पवने धातुसे इत्र प्रत्यय कर पवित्रम् शब्द बनाया जा सकता है।५९ लौकिक संस्कृतमें पवित्र शब्द कुश, ताम्र, अर्थोपकरण आदिके लिए भी प्रयुक्त होता है । ६० (४२) तोद :- इसका अर्थ होता है - भूमि का छिद्र, कूप । निरुक्तके अनुसारतोस्तुद्यते : ५८ अर्थात् यह शब्द तुद् व्यथने धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह छिद्रित होता है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त हैं। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार तुद् व्यर्थने धातुसे घञ् प्रत्यय करतोदः शब्द बनाया जा सकता है | 39 (४३) अरि :- यह शत्रु का वाचक है। निरुक्त के अनुसार अरिर मित्र ऋच्छर्तेः अर्थात् अरिः अमित्र को कहते हैं। इसके अनुसार अरि: शब्द ऋच्छ् गतौ धातु के योग से निष्पन्न होता है। जो शत्रुओं के प्रति गमन करता है उसे अरि: कहते हैं। इसी निर्वचनके अनुसार ईश्वर ( देवता ) भी अरिः कहे जाते हैं- ईश्वरोऽप्यरि रेतस्मादेव५८ गति करने के कारण, इनके प्रति गमन करते हैं या ये सभी भूतों के प्रति गमन करते हैं अतः सभी भूत • ३०३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy