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माना जायगा।
(११३) समानम् :- यह सदृशका वाचक है। निरुक्तके अनुसार समानं सम्मान मात्रं भवति१४४ अर्थात् जिसकी माप समान हो। इसके अनुसार-समम् + मा धातु का योग इस शब्दमें स्पष्ट होता है। मा धातु माने या परिमाण अर्थमें प्रयुक्त होता है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार सम् + आ + अन् + ल्यु = समानम् बनाया जा सकता है।६८ : (११४) मात्रा :- इसका अर्थ होता है माप। निरुक्तके अनुसार -मात्रा मानात्१४४ अर्थात् माप होनेके कारण मात्रा कहलाती है। जिसे मापी जाय उसे मात्रा कहेंगे। इसके अनुसार मात्रा शब्दमें माङ् माने धातुका योग है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार भी माङ् माने धातु से बन६९ प्रत्यय कर मात्रा शब्द बनाया जा सकता है। मात्रा शब्द परिच्छद, कर्ण विभूषा, अक्षरावयव, मान आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।१७०
(११५) अन्त :- इसका अर्थ होता है समाप्त। निरुक्तकै अनुसार अन्तोऽतते:१४४ अर्थात् यह शब्द अत् सातत्य गमने धातुसे निष्पन्न होता है। क्योंकि नजदीक की चीजें प्राप्त हुई होती है। यह आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा विज्ञानके अनुसार इसे संगत माना जायगा। व्याकरण के अनुसार अम् गतौ + तन् प्रत्यय कर अन्त: शब्द बनाया जा सकता है। या अत् वन्धने से अच् प्रत्यय७१ कर इसे बनाया जा सकता है। अंग्रेजी का हं शब्द इसी के समान है।
(११६) ऋषक :- यह शब्द अनेकार्थक है। पृथक् मावके अर्थमें इस शब्दका विवेचन करते हुए यास्क कहते हैं-ऋधगिति पृथग्भावस्य प्रवचनं भवति अर्थात् ऋधक पृथग्माव का वाचक है। पुनः समृद्धि के अर्थमें विवेचन करते हुए वे कहते हैं अथात्युभोत्यर्थे दृश्यते१४४ अर्थात् ऋधक् शब्दका अर्थ समृद्धि भी होता है। यास्कने विभिन्न अर्थोंमें इसका निर्वचन प्रस्तुत नहीं किया है। समृद्धिके अर्थमें प्राप्त विवेचनसे स्पष्ट होता है कि यह शब्द ऋथ् समृद्धौ धातुसे निष्पन्न होता है। इस आधार पर यह भी स्पष्ट होता है कि समृद्धिके अर्थमें प्रयुक्त निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक महत्त्वसे युक्त हैं। प्रथम पृथक्वाची ऋधक् को अपूर्ण निर्वचन माना जाएगा। द्वितीय निर्वचन भाषा विज्ञान की दृष्टि से उपयुक्त है।
२७८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क