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________________ नाम। (१) संस्त्यानमस्मिन् पापकमिति नैरुक्ता: १४४ अर्थात् निरुक्तकारोंके अनुसार इसमें पाप कर्म एकत्र होता रहता है। इसके अनुसार तायु शब्द में स्त्यै शब्द संघातयोः धातु का योग है। स्त्यै- स्तायुः तायुः । समान स्थानीय ऊष्म वर्ण स् का समान स्थानीय स्पर्श वर्ण के संयोग होने से लोप हो गया है। इसे ध्वनि विकास का परिणाम माना जा सकता है। (२) तस्यतेर्वा स्यात् १४४ अर्थात् यह शब्द तसु उपक्षये धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि वह अपने अधर्मपूर्ण व्यवहारके चलते नष्ट हो जाता है। १५१ प्रथम निर्वचनको ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे संगत माना जा सकता है। द्वितीय निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। द्वितीय निर्वचन भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे संगत नहीं है । व्याकरणके अनुसारं ताय् धातुसे उण् प्रत्यय कर तायुः शब्द बनाया जा सकता है। (९८) भर :- यह संग्रामका वाचक है। निरुक्तके अनुसार भरइति संग्राम नाम (१) भरतेवां १४४ अर्थात् भर: शब्द में भृ भरणे धातुका योग है, क्योंकि युद्धमें लाभ भी होता है।१२५ (२) हरतेर्वा१४४ अर्थात् युद्धमें हानि भी होती है। धन, जीवन आदि का प्रचुर हरण होता है। इसके अनुसार यह शब्द ह हरणे धातुके योगसे निष्पन्न होता है। धातुसे हर, पुन: वर्ण विपर्यय के द्वारा ह का भ होकर भर: शब्द बनता है। वैदिक संस्कृत में धातु स्थित ह का कहीं कहीं भ वर्ण में परिवर्तन पाया जाता है। यास्क भ्राता शब्द के निर्वचन में हृ धातु की कल्पना इसीलिए करते हैं । १५३ कात्यायन ने भी लौकिक संस्कृतके ह को वैदिक भ ही माना है । १५४ लगता है भ प्राचीन रूप रहा होगा। यास्क के समय में हृ एवं भृ दोनों का प्रचलन था। लौकिक संस्कृत में ह ही मूल माना जाता है। प्राकृत भाषा में भी संस्कृत की ख घथ ध भ ध्वनियां ह में परिवर्तित हो जाती है।१५५ वैदिक संस्कृत में जबकि ह ही भ में परिवर्तित पाया जाता है। यास्क का प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसे संगत माना जाएगा। द्वितीय निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। द्वितीय निर्वचनमें ध्वनि परिवर्तन की दिशा स्पष्ट होती है। डा. वर्मा के अनुसारभी यह निर्वचन भाषा विज्ञानके अनुकूल है। १५६ संस्कृत व्याकरणके अनुसार भृञ् भरणे + अच्१५७ प्रत्यय कर भरः शब्द बनाया जा सकता है। (९९) नीचै::- इसका अर्थ होता है- नीचे । निरुक्तके अनुसार -नीचैर्निचितं भवति१४४ अर्थात् निश्चित रूपमें नीचे रहता है या नीचे एकत्र रहता है। इसके अनुसार इस शब्दमें नि+चिञ् चयने धातुका योग है। इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक २७४ व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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