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________________ शयन करता है। इसके अनुसार शीरम् शब्दर्म शीङ् स्वप्ने धातुका योग है। २ आशिनमिति वा अर्थात् जो सभी में व्याप्त हो। इसके अनुसार इस शब्द में अशु व्याप्तौ धातुका योग है। दोनों निर्वचनोंका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। प्रथम निर्वचनको ध्वन्यात्मक दृष्टिसे भी उपयुक्त माना जा सकता है। द्वितीय निर्वचन का ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त नहीं है। व्याकरण के अनुसार शीङ् + रक् प्रत्यय कर शीरम् शब्द बनाया जा सकता है। (५३) कन्या :- इसका अर्थ होता है- कुमारी लड़की। निरुक्त में इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं- (१) कन्या कमनीया भवति अर्थात् कन्या कमनीय होती है। सुन्दर होती है। इसके अनुसार कन्या शब्द में कमु कान्तौ धातुका योग है। (२) क्वेयं नेतव्येतिवा अर्थात् इसे कहां ले जाना चाहिए (इसका विवाह कहां करना चाहिए इसकी चिन्ता माता पिता को सदा बनी रहती है।) इसके अनुसार कन्या शब्दमें क्व +णीञ् प्रापणे धातुका योग है। (३) कमनेनानीयत इति वा अर्थात् वह वरके द्वारा लायी जाती है या चाहने वालेके द्वारा लायी जाती है। इसके अनुसार इस शब्दमें कम् +आ +णीञ् धातुका योग है। कम् +णीञ् = कन्या। (४) कनतेर्वा स्यात् कान्तिकर्मण:६५ अर्थात् कान्त्यर्थक कन् धातुसे यह शब्द बनता है क्योंकि वह सुन्दरी होती है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे अंतिम निर्वचन सर्वथा संगत है। शेष निर्वचनोंका अर्थात्मक महत्त्व है। वेदमें कन्या शब्दके लिए कनीनका८३ तथा कनी८४ शब्द की भी उपलब्धि होती है इसमें कनी शब्द कन्या शब्द की प्रकृति मालूम पड़ता है कन् - कन्या। व्याकरणके अनुसार कन् । यत् +टाप् = कन्या शब्द बनाया जा सकता है।८५ (५४) दारु :- यह काष्ठ या लकड़ी का वाचक है। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते हैं। (१) दारु दृणातेः अर्थात् दारु शब्द दृ विदारणे धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि यह विदारित होता है या फाड़ा जाता है। (२) द्रुणातेर्वा अथवा दारु शब्द द्रु हिंसायां धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इसे काटा जाता है। (३) तस्मादेव द्र५ अर्थात् द्रु भी उसी धातुसे निष्पन्न होता है। प्रथम निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है। भाषा विज्ञानके अनुसार प्रथम निर्वचन उपयुक्त माना जाएगा। शेष निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखते हैं। व्याकरणके अनुसार दृ विदारणे धातुसे त्रुण्६ प्रत्यय कर दारु शब्द बनाया जा सकता है। (५५) तुग्व :- यह तीर्थ का वाचक है। निरुक्तके अनुसार तुग्व तीर्थं भवति। २६० न्युत्पति जान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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