SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शब्द होगा। (101) इन्द्रशत्रु:- यह सामासिक शब्द है। निरुक्तके अनुसार इन्द्र शत्रुः इन्द्रोऽस्य शमयिता शातयिता वा18 अर्थात् इन्द्र इसको (वृत्रको) शान्त (मारने वाला) करने वाला है या इन्द्र शत्रुः वृत्रके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है। इसमें दो प्रकारके विग्रह हो सकते है इन्द्रस्य शत्रु-वृत्रः ।अथवा इन्द्रः शत्रुर्यस्य स इन्द्रशत्रुः । इन्द्रस्य शत्रुः-इन्द्रशत्रुः इस तत्पुरुष समासमें अन्तोदात्त होगा तथा इन्द्रः शत्रुः शमयिताशातयिता वा यस्य सः इन्द्रशत्रुः इस वहुब्रीहि समासमें पूर्व पद आधुदात्त होगा।20 यास्कका यह निर्वचन ऐतिहासिक आधार रखता है। इन्द्र वृत्रका शत्रु है यह ऐतिहासिक आधार रखता है। ऐतिहासिक आख्यानोंमें भी यह प्राप्त है। अतः इन्द्र शत्रुका अर्थ वृत्र है। निरुतकारोंके अनुसार वृत्र मेघ है। ऐतिहासिकोंके अनुसार यह त्वष्टाकाअपत्य असुर है। इसे त्वाष्ट्र भी कहा जाता है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इन्द्रशत्रुः शब्दके निर्वचनमें यास्क द्वारा ६ पातुओंकी उपस्थापना उपयुक्त है। इसे भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे संगत माना जायगा। ___(102) दास :- इसका अर्थ कर्मकर या नौकर होता है। निरुक्तके अनुसार - दासो दस्यते:2 अर्थात् यह शब्द दसु उपक्षये धातुसे बनता है। क्योंकि वह कृषि आदि कार्य सम्पन्न करता है। डा0 वर्माके अनुसार इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। लेकिन अर्थात्मकता पूर्ण रूपमें उपयुक्त नहीं । वस्तुतः दसु उपक्षये धातुसे दास शब्द मानने पर इसका अर्थ होगा कार्योका विनाशक । विशेष अर्थमें कार्य सम्पादन करने वाला भी माना जायगा । तत्कालीन नौकरके व्यावहारके अनुसारही यह नामकरण प्रतीत होता है। व्याकरणके अनुसार दासृ दाने धातुसे घ. प्रत्यय करने पर दासः शब्द बनता है। (103) अहि:- इसका अर्थ मेघ, सर्प आदि होता है। निरुक्तमें इसके लिए कई निर्वचन प्राप्त होते है-1-अयनात् अर्थात् गमन करनेके कारण अहिः कहा जाता है। इसके अनुसार इस शब्दमें अय् गतौ धातुका योग है (2) एति अन्तरिक्षे अर्थात् मेघ अन्तरिक्षमें गमन करता है। इसके अनुसार इसमें इण् गतौ धातु का योग है। सर्पका वाचक अहि : भी इन्हीं निर्वचनों से माना १७८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy