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________________ होने वाली कमीके लिए प्रायश्चित्का विधान करता है। वह सभी शास्त्रोंके अध्ययन से खूब बढ़ा रहता है। ५९ 'ब्रह्मा परिवृद्धं भवति सर्वत:५७ इसमें बृह वृद्धौ धातुका योग है, क्योंकि ब्रह्मा सभी ओर बढ़ा रहता है। बृढ़ः शब्दमें बृह्+क्त प्रत्यय है। बृह धातुसे ब्रह्मा शब्दमें ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक औचित्य है। फलतः भाषाविज्ञानकी दृष्टिसे इसे उपयुक्त माना जाएगा। व्याकरणके अनुसार बृहि वृद्धौ + मनिन्६० = ब्रह्मन् ब्रह्मा शब्द बनेगा। (बृंहतिवर्धयति प्रजाइति) (२२) अध्वर्यु :- अध्वर्यु का अर्थ होता है यज्ञकी मात्रा (स्वरूप) को निर्धारित करने वाला या यज्ञका नेता। ध्वरका अर्थ हिंसा होता है जिसमें हिंसा नहीं हो उसे अध्वर कहेंगे -(अ-ध्वर = अध्वर) यह यज्ञका पर्याय है। अध्वर्यः एवं अध्वरयः दोनों शब्द प्रचलित हैं। लोकमें अध्वरयु तथा वेदमें अध्वर्य शब्दका प्रयोग प्राय: पाया जाता है। यास्कने इसके कई निर्वचन प्रस्तुत किए हैं : (क) अध्वरं युनक्ति'६१ इस आधार पर अध्वर्युका अर्थ होगा यज्ञको जोड़ने वाला। अध्वर (यज्ञ) +यु (बन्धने) = अध्वर्यु। इसमें अध्वर नाम पद है तथा यु तद्धित प्रत्यय। इसका ध्वन्यात्मक आधार उपयुक्त है। (ख) 'अध्वरस्यनेता'६१ इसके आधार पर इसका अर्थ होता है अध्वरका नेता। यज्ञ सम्पादनमें इसका प्रधान हाथ होता है। इसे यज्ञकी प्रक्रियाका संचालक भी कहा जा सकता है। इसमें अध्वस नी प्राप्त होता है। नी प्रापणे धातु यु का अर्थापन्न है। अर्थात्मक दृष्टिसे ही इस निर्वचनका महत्व है। इसका ध्वन्यात्मक आधार संगत नहीं है। यहां अर्थात्मक संगतिके लिए यास्क ध्वन्यात्मक आधारकी उपेक्षा कर देते हैं। (ग) 'अध्वरं कामयते इति'६१ वह अध्वरकी कामना करता है इसलिए अध्वर्यु कहलाता है। यहां अध्वस तत्कामते अर्थ में यु तद्धित प्रत्यय है। (घ) 'अपिवा अधीयाने यु:६१ अध्ययन अर्थमें भी यु प्रत्यय होता है जो अध्वर्युमें लगाहै अध्वर +यु:= अध्वर्यु:यहांभी यु प्रत्यय है। उपर्युक्त निर्वचनोंसे स्पष्ट है कि यास्कने अध्वर + युः में युः को प्रथम निर्वचन में युज धातुसे तृतीयमें तत्कामयते से तथा चतुर्थ में अधीयाने (तदधीते) के अर्थसे युक्त माना है। यु एक तद्धित प्रत्ययके रूपमें प्रचलित उपवन्ध है। इस आधार पर यह निर्वचन भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी संगत है। व्याकरणके अनुसार इसे (अध्वरमिछति) अध्वर + क्यष्- लोप६३ +यु:६४ = अध्वर्युः या न + ध्वर+ अध्वर, ध्व = कौटिल्ये + विच्=ध्वर - ध्वरं याति यौतिवा मितद्रवादित्वात् डु:६५= अध्वर्यु: बनाया जा सकता है। १२९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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