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________________ उपयुक्त लगता है क्योंकि 'प्राधान्येन व्यपदेशा: भवन्ति' के आधार पर नैघण्टुक काण्डकी प्रधानता प्रतिलक्षित है। दूसरे काण्डका नाम नैगम काण्ड या ऐकपदिक काण्ड है। इस काण्डमें ऐसे शब्द संकलित हैं जिनके धातु एवं प्रत्ययोंका स्पष्ट प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। यास्कने ऐसे शब्दोंको अनवगत संस्कारवाला शब्द माना है। अनेकार्थक शब्दोंके निर्वचन इसी काण्डमें प्राप्त होते हैं। निघण्टुका चौथा अध्याय नैगम या ऐकपदिक काण्ड कहलाता है। अनेकार्थक एवं अनवगत संस्कार युक्त शब्दोंकी संख्या २७९ है। इन शब्दोंकी व्याख्या निरुक्तके चतुर्थ, पंचम एवं षष्ठ अध्यायोंमें की गयी है। निघण्टुका अंतिम काण्ड दैवत काण्ड है। यह निघण्टुका पांचवा अध्याय है। इसमें देवताओंके नाम प्रधान रूपमें संकलित हैं। वे ही नाम यहां उपलब्ध होते हैं जो वेदमें प्रधान रूपमें संस्तुत देवताओं के नाम हैं।२८ अग्नि से लेकर देवपत्नी पर्यन्त १५१ शब्द हैं।२९ निरुक्त के ७ से १२ अध्यायोंमें इन सभी शब्दोंकी व्याख्या की गयी है। निरुक्तकी बहुत सी प्रतियां विभिन्न रूपोंमें प्राप्त होती हैं जिनमें रूपकी विभिन्नताके साथ-साथ आकारमें भी विभिन्नता है।३० आज तक उपलब्ध संस्करणोंके अनुसार कुछ संस्करण में १२ अध्याय, कुछ में १३ अध्याय तथा कुछ में १४ अध्याय प्राप्त होते हैं। सम्प्रति उपलब्ध संस्करणोंके समीक्षणसे स्पष्ट होता है कि निरुक्तमें चौदह अध्याय हैं। आज चतुर्दश अध्यायात्मक निरुक्त ही सर्वमान्य हैं। निरुक्तका प्रथम अध्याय सम्पूर्ण निरुक्तकी भूमिका है। जिस प्रकार महा भाष्यकी भूमिकाके रूप में पस्पशाह्निक का दर्शन होता है उसी प्रकार निरुक्तकी भूमिकाके रूपमें इस प्रथम अध्यायको माना जाता है। संस्कृत साहित्यके अन्य भाष्य ग्रन्थों में भी इसी प्रकारकी रीति दीख पड़ती है। निरुक्तके प्रथम अध्यायके प्रारंभमें ही निघण्टुके शब्दोंकी व्याख्याकी जाएगी, इस प्रकारका प्रतिज्ञा वाक्य उपलब्ध होता है। इस अध्यायमें पदके चार भेद, नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात तथा इनके लक्षणोदाहरणका समुचित विवेचन प्राप्त होता है। शब्दोंके नित्यानित्यत्व पर विभिन्न आचार्योके मंतव्योंका समुपस्थापन तथा यास्कका स्वाभिमत इस अध्यायके विषय हैं। भाव विवेचन के साथ भाव विकार का इतना सूक्ष्म वर्णन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता, जितना निरुक्तके इस अध्यायमें वर्णित है। इन सबोंके अतिरिक्त इस अध्यायमें निरुक्त प्रयोजन, मन्त्रोंकी सार्थकता, काण्ड त्रयात्मकता आदिका भी विवेचन किया गया है। यत्र तत्र कुछ शब्दोंकी निरुक्ति भी दी गयी है जो निर्वचनकी पूर्वपीठिका है। ९१ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
SR No.023115
Book TitleVyutpatti Vigyan Aur Aacharya Yask
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamashish Pandey
PublisherPrabodh Sanskrit Prakashan
Publication Year1999
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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