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________________ एकविंशतितमोऽध्यायः 373 जिस प्रकार सर्प के द्वारा काटा गया व्यक्ति मन्त्र और औषधि से स्वास्थ्य लाभ करता है, उसकी चिकित्सा मन्त्र और औषधि है, उसी प्रकार दुष्ट केतु की चिकित्सा दान-पूजा है । तात्पर्य यह है कि अशुभ केतु पापोदय से प्रकट होता है, पाप शान्त होने पर अशुभ केतु स्वयमेव शान्त हो जाता है। गृहस्थ के लिए पाप शान्ति का उपाय जप-तप के अलावा दान-पूजन ही है ।।57।। य: केतुचारमखिलं' यथावत् पठन्ति युक्तं श्रमणः समेत्य। स केतुदग्धांस्त्यजते हि देशान् प्राप्नोति पूजां च नरेन्द्रमूलात्॥58॥ जो बुद्धिमान् श्रमण-मुनि समस्त केतु चार को यथावत् अध्ययन करता है वह केतु के द्वारा पीड़ित प्रदेशों का त्यागकर अन्यत्र गमन करता है, और राजाओं से पूजा प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ।।58।। इति नIत्थे भद्रबाहुके निमित्त एकविंशतितमोऽध्यायः ॥21।। विवेचन-केतुओं के भेद और स्वरूप-केतु मूलतः तीन प्रकार के हैंदिव्य, अन्तरिक्ष और भौम । ध्वज, शस्त्र, गृह, वृक्ष, अश्व और हस्ती आदि में जो केतुरूप दर्शन होता है, वह अन्तरिक्ष केतु; नक्षत्रों में जो दिखलायी देता है उसे दिव्यकेतु हैं और इन दोनों के अतिरिक्त अन्य रूक्ष भौमकेतु हैं ! केतुओं की कुल संख्या एक हजार या एक सौ एक है। केतु का फलादेश, उसके उदय, अस्त, अवस्थान, स्पर्श और धूम्रता आदि के द्वारा अवगत किया जाता है। केतु जितने दिन तक दिखलायी देता है, उतने मास तक उसके फल का परिपाक होता है । जो केतु निर्मल, चिकना, सरल, रुचिर और शुक्लवर्ण होकर उदित होता है, वह सुभिक्ष और सुखदायक होता है। इसके विपरीत रूपवाले केतु शुभदायक नहीं होते, परन्तु उनका नाम धूमकेतु होता है। विशेषतः इन्द्रधनुष के समान अनेक रंगवाले अथवा दो या तीन चोटी वाले केतु अत्यन्त अशभकारक होते हैं। हार, मणि या सुवर्ण के समान रूप धारण करने वाले और चोटीदार केतु यदि पूर्व या पश्चिम में दिखलायी दें तो सूर्य से उत्पन्न कहलाते हैं और इनकी संख्या पच्चीस है। तोता, अग्नि, दुपहरिया का फूल, लाख या रक्त के समान जो केतु अग्निकोण में दिखलायी दें, तो वे अग्नि से उत्पन्न हुए माने जाते हैं और इनकी संख्या पच्चीस है। पच्चीस केतु टेढ़ी चोटी वाले, रूखे और कृष्णवर्ण होकर दक्षिण में दिखलाई पड़ते हैं, ये यम से उत्पन्न हुए माने गये हैं। इनके उदय होने से मारी पड़ती है। दर्पण के समान गोल आकार वाले, शिखा रहित, किरण युक्त और सजल तेल के समान कान्ति वाले जो बाईस केतु ईशान दिशा में दिखलायी पड़ते हैं, वे पृथ्वी 1. निखिलं मु० । 2. पठेत् सुयुक्तं मु० ।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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