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________________ एकविंशतितमोऽध्यायः 365 विषम केतुओं का फल विषम ही होता है ॥ 2 ॥ पूर्वलिङ्गानि केतूनामुत्पाता: सदृशाः पुन:। ग्रहा' अस्तमनाश्चापि दृश्यन्ते चापि लक्षयेत् ॥3॥ केतुओं के पूर्व चिह्न उत्पात के समान ही हैं, अतः ग्रहों के अस्तोदय को देख कर और लक्ष्यकर फल कहना चाहिए ।। 3 ।। शतानि चैव केतूनां प्रवक्ष्यामि पृथक् पृथक् । उत्पाता यादृशा उक्ता ग्रहास्तमनान्यपि ॥4॥ सैकड़ों केतुओं का वर्णन पृथक्-पृथक किया जायगा। ग्रहों के अस्तोदय तथा जिस प्रकार के उत्पात कहे गये हैं, उनका वर्णन भी वैसा ही किया जाएगा ॥ 4 ॥ अन्यस्मिन् केतुभवने यदा केतुश्च दृश्यते । तदा जनपदव्यूहः प्रोक्तान् देशान् स हिंसति ॥5॥ यदि अन्य केतुभवन में केतु दिखलाई पड़े तो जनता प्रतिपादित देशों का घात करती है ॥5॥ एवं दक्षिणतो विन्द्यादपरेणोत्तरेण च। 'कृत्तिकादियमान्तेषु नक्षत्रेषु यथाक्रमम् ॥6॥ इस प्रकार कृत्तिका नक्षत्र से भरणी तक दक्षिण, पश्चिम और उत्तर इन दिशाओं में नक्षत्रों में क्रमशः समझ लेना चाहिए ॥ 6 ॥ धूम्र: क्षुद्रश्च यो ज्ञेय: केतुरंगारकोऽग्निपः । प्राणसंत्रासयत्राणी स प्राणी संशयी तथा ॥7॥ केतु, अंगारक और राहु धूम्र वर्ण और क्षुद्र दिखलाई पड़ें तो प्राणों का संकट और अनेक प्रकार के संशय उत्पन्न होते हैं ॥ 7 ॥ त्रिशिरस्के द्विजमयम् अरुणे युद्धमुच्यते। अरश्मिके नृपापायो विरुध्यन्ते परस्परम् ॥४॥ यदि तीन सिर वाला केतु दिखलाई पड़े तो द्विजों को भय; अरुण केतु दिखलाई पड़े तो युद्ध और किरण रहित केतु दिखलाई पड़े तो राजा और प्रजा में परस्पर विरोध पैदा करता है ।।8॥ विकृते विकृतं सर्व क्षीणे सर्वपराजयः । शृंगे शृंगिवध: पाप: कबन्धे जनमृत्युदः ॥9॥ 1. गृहास्तमनान्ताश्च मु०। 2. कृत्त कादियं - मु० । 3. विक्षिले विक्षिलं सर्व मिली सर्व पराजयम् मु०।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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