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एकोनविंशतितमोऽध्यायः
यदि रोहिणी नक्षत्र पर मंगल की कुचेष्टा दिखलाई पड़े तो गाय, और समुद्र का विनाश होता है ॥ 8 ॥
स्पृशेल्लिखेत् प्रमद् वा रोहिणीं यदि लोहितः । तिष्ठते दक्षिणो वाऽपि तदा शोक - भयंकरः ॥9॥
सर्वद्वाराणि दृष्ट्वाऽसौ विलम्बं यदि गच्छति । सर्वलोकहितो ज्ञेयो दक्षिणोऽसृग् लोहितः ॥10॥
यदि मंगल रोहिणी नक्षत्र का स्पर्श करे, भेदन करे और प्रमर्दन करे अथवा दक्षिण में निवास करे तो भयंकर शोक की प्राप्ति होती है ॥19॥
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यदि दक्षिण मंगल सभी द्वारों को देखता हुआ विलम्ब से गमन करे तो समस्त लोक का हितकारी होता है ॥10॥
उदयात् सप्तमे ऋक्षे नवमे वाऽष्टमेऽपि वा । यदा भौमो निवर्तत तदुष्णं वक्रमुच्यते ॥12॥
गोशाला
पञ्च वक्राणि भौमस्य तानि भेदेन द्वादश । उष्णं शोष नुखं व्यालं लोहितं लोहमुद्गरम् ॥11॥
मंगल के पाँच वक्र होते हैं और भेद की अपेक्षा बारह वक्र कहे गये हैं । उष्ण, शोषमुख, व्याल, लोहित और लोहमुद्गर - ये पाँच प्रधान वक्र हैं ॥11॥
जब मंगल का उदय सातवें, आठवें या नवें नक्षत्र पर हुआ हो और वह लौट कर गमन करने लगे तो उसे उष्ण वक्र कहते हैं ||12||
सुवृष्टिः प्रबला ज्ञेया विष- कोटाग्निमूर्च्छनम् । ज्वरो जनक्षयो वाऽपि तज्जातानां च विनाशनम् ॥13॥
एकादशे यदा भौमो द्वादशे दशमेऽपि वा । निवर्तेत तदा वक्रं तच्छोषमुखमुच्यते ॥14॥
इस उष्ण वक्र में वर्षा अच्छी होती है । विष, कीट और अग्नि की वृद्धि होती है । ज्वर फैलता है । जनक्षय भी होता है तथा जनता को कष्ट होता है ।।13।।
1. स च मु० ।
अपोन्तरिक्षात् पतितं दूषयति तदा रसान् । ते सृजन्ति रसान् दुष्टान् नानाव्याधस्तु भूतजान् ॥15॥