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________________ 246 भद्रबाहुसंहिता व्याधयः प्रबला यत्र माल्यगन्धं न वायते। आहूतिपूर्णकुम्भाश्च विनश्यन्ति भयं वदेत् ॥140॥ जहाँ व्याधियाँ प्रबल हों, माल्यगन्ध न मालूम पड़ती हो और आहूतिपूर्ण कलश-मंगल-कलश विनाश को प्राप्त होते हों, वहाँ भय होता है ।। 1400 नववस्त्रं प्रसंगेन ज्वलते मधुरा गिरा। अरुन्धती न पश्येत स्वदेहं यदि दर्पणे ॥141॥ यदि नवीन वस्त्र अकारण जल जाय और मधुर वचन मुंह से निकलें, अरुन्धती तारा दिखलाई न पड़े तो महान् भय अवगत करना चाहिए अर्थात् मृत्यु की सूचना समझनी चाहिए ।।141॥ न पश्यति स्वकार्याणि परकार्यविशारदः। मैथने यो निरक्तश्च न च सेवति मैथुनम् ।।142॥ न मित्रचित्तो भूतेषु स्त्री वृद्धं हिंसते शिशुम्। विपरीतश्च सर्वत्र सर्वदा स भयावहः ॥143॥ जो परकार्य में तो रत हो, पर स्व कार्य का सेवन न करता हो, मैथुन में संलग्न रहने पर भी मैथुन का सेवन न करता हो, मित्र में जिसका चित्त आसक्त नहीं हो और जो स्त्री, वृद्ध और शिशुओं की हिंसा करता हो तथा स्वभाव और प्रकृति से विपरीत जितने भी कार्य हैं, सब भयप्रद हैं ।।142-143।। अभीक्ष्णं चापि सप्तस्य निरुत्साहाविलम्बिनः । ___ अलक्ष्मीपूर्णचित्तस्य प्राप्नोति स महद्भयम् ॥144॥ जो निरन्तर सोने वाला है, निरुत्साही है और धन से रहित है, उसे महान् भय की प्राप्ति होती है ।144।। क्रव्यादा शकुना यत्र बहुशो विकृतस्वनाः । तनेन्द्रियार्थविगुणाः श्रिया होनाश्च मानवा: ॥145॥ जहां मांसभक्षी पक्षी अत्यधिक विकृत स्वर वाले हों वहाँ मनुष्य इन्द्रियों के अर्थों को ग्रहण करने की शक्ति से हीन और लक्ष्मी से रहित होते हैं। अर्थात् वहाँ अज्ञानता और निर्धनता निव स करती है ।।1451 .. निपतति द्रमश्छिन्नो स्वप्नेष्वभयलक्षणम् । रत्नानि यस्य नश्यन्ति बहुश: प्रज्वलन्ति वा ॥146॥ 1. सेवते मु० । 2. पापस्वप्नस्य निरुत्साहो विचिन्तितः मु० । 3. अलक्ष्मीपूर्णो न चिरात् मु० । 4. पिशुनाः मु० । 5. वपुश्च हयलक्षणम् मु० ।
SR No.023114
Book TitleBhadrabahu Samhita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Jyotishacharya
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages620
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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