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________________ प्रकाराकीय जैनधर्म-दर्शन में कर्म-सिद्धान्त का विस्तृत एवं व्यवस्थित निरूपण हुआ है। जीवादि नवतत्त्वों में निरूपित 'बंध तत्त्व' मुख्यतः कर्म-सिद्धान्त एवं कर्म-प्रकृतियों के विवेचन से सम्बद्ध है। व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, षट्खण्डागम एवं उस पर धवला टीका, कसायपाहुड एवं उस पर जयधवलाटीका, महाबंध, कम्मपयडि, पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ (भाग 1 से 6), गोम्मटसार-कर्मकाण्ड आदि अनेक ग्रन्थ जैन कर्म-सिद्धान्त विषयक मान्यताओं का प्रतिपादन करते हैं। जब जैन कर्म-सिद्धान्त का गहन अध्ययन किया जाता है तो अनेक प्रचलित मान्यताएँ एवं पारिभाषिक अर्थ विवेकशील मस्तिष्क को सहज स्वीकार्य नहीं होते हैं। जैनधर्म-दर्शन के प्रमुख विद्वान् श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा ध्यानसाधक एवं मौलिक चिन्तक हैं। उन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय इन चार घातिकर्मों तथा वेदनीय, आयु, नाम एवं गोत्र इन चार अघातिकर्मों और उनकी उत्तर प्रकृतियों के आत्म-साधना, स्वाध्याय एवं चिन्तन के आधार पर ऐसे नये अर्थ दिए हैं जो विसंगतियों का निराकरण कर नूतनदृष्टि प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए वे ज्ञान का अनादर करने या आचरण न करने को ज्ञानावरण कर्म के बंध का प्रमुख कारण प्रतिपादित करते हैं। वेदनीय कर्म का प्रतिपादन करते हुए वस्तुओं की प्राप्ति को वेदनीय कर्म का फल नहीं मानते, किन्तु निमित्त से साता-असाता का उदय होना स्वीकार करते हैं। अन्तराय कर्म के भेदों में दान का अर्थ उदारता, लाभ का अर्थ अभाव का अभाव करते हुए नूतन विवेचन किया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। प्राक्कथन में कर्म-सिद्धान्त विषयक विभिन्न घटकों का निरूपण किया गया है तथा अष्टकर्मों के विवेचन के अनन्तर सामुदायिक कर्म आदि की अवधारणाओं की परीक्षा की गई है। इस प्रकार यह एक क्रान्तिकारी पुस्तक है। साथ VII
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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