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________________ प्रत्येक की विभिन्न संख्या में उत्तर प्रकृतियाँ हैं। प्रत्येक कर्म की इन उत्तर प्रकृतियों में ही अर्थात् सजातीय कर्म प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है। अन्य जातीय कर्म प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता। यह ध्रुव नियम है। इसमें कहीं अपवाद नहीं है। जैसे ज्ञानावरणीय कर्म की किसी प्रकृति का दर्शनावरणीय आदि अन्य सात कर्मों की किसी प्रकृति में संक्रमण नहीं होता। ज्ञानावरणीय कर्म की मतिज्ञानावरणीय आदि पाँचों उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है। सजातीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों में परस्पर संक्रमण होने का जो नियम है उसके भी कुछ अपवाद हैं। जैसे दर्शन मोहनीय की प्रकृतियों का चारित्र मोहनीय की प्रकृतियों में संक्रमण नहीं होता तथा आयु कर्म की चारों प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता, इत्यादि । (2) स्थिति संक्रमण : कर्मों की स्थिति में संक्रमण अर्थात् परिवर्तन होना, स्थिति संक्रमण है। वह 1. अपवर्तना 2. उद्वर्तना व 3. पर प्रकृति रूप परिणमन से होता है। कर्म की स्थिति का घटना, अपवर्तना या अपकर्षण है। स्थिति का बढ़ना, उद्वर्तना या उत्कर्षण है। प्रकृति की स्थिति का समान जातीय अन्य प्रकृति की स्थिति में परिवर्तन करना, प्रकृत्यन्तर परिणमन संक्रमण है। (3) अनुभाग संक्रमण : अनुभाग में परिवर्तन होना, अनुभाग संक्रमण है। स्थिति संक्रमण के समान अनुभाग संक्रमण भी, 1. अपकर्षण 2. उत्कर्षण 3. पर प्रकृति रूप तीन प्रकार का है। (4) प्रदेश संक्रमण : प्रदेशाग्र का अन्य प्रकति को ले जाया जाना, प्रदेश संक्रमण है। प्रदेश संक्रमण पाँच प्रकार का है- 1. उद्वेलन संक्रमण 2. विध्यात संक्रमण 3. अधः प्रवृत्त संक्रमण 4. गुण संक्रमण 5. सर्व संक्रमण। (अ) उद्वेलन संक्रमण : अधः प्रवृत्तादि तीन करणों के बिना ही कर्म प्रकृतियों के परमाणुओं का अन्य प्रकृति रूप परिणमन होना, उद्वेलन संक्रमण कहलाता है, जैसेकि रस्सी निमित्त को पाकर उकल (उधड़) जाती है। (आ) विध्यात संक्रमण : जिन कर्मों का गुण प्रत्यय या भव प्रत्यय से अर्थात् गुणस्थान विशेष व नरक, देव आदि भव विशेष के कारण से जहाँ XXX प्राक्कथन
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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