SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकार खेत में स्थित पौधे को प्रतिकूल खाद, ताप व जलवायु मिले, तो उसकी आयु व फलदान की शक्ति घट जाती है। इसी प्रकार सत्ता में स्थित कर्मों के बंध के कोई प्रतिकूल काम करे, तो उसकी स्थिति व फलदान शक्ति घट जाती है। अथवा जिस प्रकार पित्त का रोग नींबू व आलूबुखारा खाने से, तीव्र क्रोध का वेग जल पीने से, ज्वर का अधिक तापमान बर्फ रखने से घट जाता है। इसी प्रकार पूर्व में किए गए दुष्कर्मों के प्रति संवर तथा प्रायश्चित्त आदि करने से उनकी फलदान शक्ति व स्थिति घट जाती है। अतः विषय-कषाय की अनुकूलता में राग तथा प्रतिकूलता में खेद (शोक) व द्वेष न करने में अर्थात् विरति (संयम) को अपनाने में ही आत्म-हित है। नियम- संक्लेश (कषाय) की कमी एवं विशुद्धि (शुभ भावों) की वृद्धि से पहले बंधे हुए कर्मों में आयु कर्म को छोड़कर शेष सब कर्मों की स्थिति में एवं पाप प्रकृतियों के रस में अपवर्तन (कमी) होता है। संक्लेश की वृद्धि से पुण्य प्रकृतियों के रस में अपवर्तन होता है। (6) संक्रमण – किसी प्रकार के विशेष परिवर्तन या संक्रान्ति को संक्रमण कहते हैं। जैसे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र (स्थान) में चले जाना, क्षेत्र संक्रमण है। एक ऋतु के चले जाने से दूसरी ऋतु का आ जाना, काल संक्रमण है। किसी व्यक्ति से प्रेम हटकर अन्य व्यक्ति से प्रेम हो जाना भाव संक्रमण है। इसी प्रकार कर्म जगत् में भी संक्रमण होता है। इसका सामान्य नियम यह है कि पूर्व में बंधी हुई कर्म प्रकृतियों का संक्रमण या रूपान्तरण वर्तमान में बंधने वाली सजातीय कर्म प्रकृतियों में होता है। जीव के वर्तमान परिणामों के कारण से जो प्रकृति पूर्व में बंधी थी, उसका न्यूनाधिक व अन्य प्रकृति रूप में परिवर्तन व परिणमन हो जाना, कर्म का संक्रमण है। संक्रमण के चार भेद हैं- 1. प्रकृति संक्रमण 2. स्थिति संक्रमण 3. अनुभाग संक्रमण और 4. प्रदेश संक्रमण। (1) प्रकृति संक्रमण : कर्म की किसी प्रकृति का अन्य प्रकृति में परिवर्तन होना, प्रकृति संक्रमण है। कर्म की ज्ञानावरणीय आदि आठ मूल प्रकृतियाँ हैं। इनमें परस्पर संक्रमण नहीं होता है। इन आठों कर्मों में से प्राक्कथन XXIX
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy