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________________ कर्मसिद्धान्तानुसार किसी भी जीव के एक साथ उच्च गोत्र व नीच गोत्र इन दोनों कर्म-प्रकृतियों का उदय नहीं हो सकता। इनमें से किसी एक ही कर्म प्रकृति का उदय हो सकता है। इस सिद्धान्तानुसार भी शरीर और बाह्य पदार्थों की प्राप्ति का सम्बन्ध गोत्र कर्म से नहीं हो सकता। कारण कि जिसके आठ बातों में से एक की भी कमी हो तो वह नीचगोत्र का होगा और एक की प्राप्ति हो तो उच्च गोत्रीय होगा । अतः इससे यह भी सिद्ध होता है कि ये आठों बातें आचरण से सम्बन्ध रखती हैं, शरीर व बाह्य पदार्थों से नहीं । सदाचरण वाले व्यक्ति में ये आठों ही बातें होंगी और दुराचरण वाला इन आठों बातों से हीन होगा अर्थात् सदाचारी ही जाति, कुल, रूप, बल, तप, श्रुत, लाभ एवं ऐश्वर्य संपन्न होगा और दुराचरण वाला इनसे हीन होगा। सदाचरण में वे आठों गुण समाहित हैं । अतः उपर्युक्त आठों गुण भाववाचक हैं, जाति एवं व्यक्तिवाचक नहीं है । यदि जाति, कुल, बल, रूप आदि को शरीर से सम्बन्धित बाहरी पदार्थ माना जाय और गुणवाचक व भाववाचक न माना जाय तो उत्तराध्ययन सूत्र के बारहवें अध्ययन में वर्णित हरिकेशी मुनि के साधु होने में बाधा आयेगी, यथाकयरे आगच्छइ दित्तरुवे, काले विकराले फोक्कनासे । ओमचेलए पंसु-पिसायभूए, संकरसं परिहरिय कंठे ।। कयरे तुमं इय अदंसणिज्जे, काए व आसा इहमागओ सि । ओमचेलगा? पंसु-पिसायभूया? गच्छ क्रवलाहि किमिह ठिओ सि ।। उत्तरा.अध्य. 12 गाथा 6-7 भावार्थ– बीभत्स रूप वाला, काला कलूटा, विकराल, बेडोल, मोटी नाक वाला, अधनंगा, धूलि - धूसरित होने से पिशाच सा दिखाई देने वाला, गले में फटा चिथड़ा डाले हुए यह कौन ( इधर ) आ रहा है । 16 ।। ओह! अदर्शनीय मूर्ति, तुम कौन हो ? यहाँ किस आशा से आए हो? गंदे और फटे वस्त्र से अधनंगे और धूलि - धूसरित होने से पिशाच सा दिखाई देने वाले, जा, भाग, यहाँ से । यहाँ क्यों खड़ा है? । । 7 । । सक्वं खु दीसइ तवो विसेसो, न दीसई जाइविसेस कोई । सोवागपुत्तं हरिएस साहु, जस्सेरिसा इड्ढि महाणुभागा ।। - उत्तरा. अ. 12, गाथा 37 गोत्र कर्म 198 -
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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