SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेक व्यक्ति दूसरों को धोखा देने के लिए बाहरी स्थिति का कृत्रिम निर्माण भी कर सकते हैं। ऐसी कृत्रिम बाहरी स्थिति से वास्तविक आन्तरिक स्थिति का पता नहीं चलता है। जैसे गहरी निद्रा की जड़ता को प्राप्त हुए व्यक्ति की शांति तथा ध्यान की गहराई से चित्त की उत्पन्न हुई शांति- इन दोनों प्रकार की शान्तियों की बाहर की स्थिति, स्थूल दृष्टि से एक समान प्रतीत होती है, परन्तु सूक्ष्म व वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो दोनों की स्थिति में आकाश- पाताल जितना अन्तर होता है। अतः बाहरी स्थिति के आधार पर आंतरिक स्थिति या विकास का निर्णय करते समय सूक्ष्म दृष्टि का होना अत्यावश्यक है। इन्द्रियों की प्राप्ति तथा उनका विकास ज्ञानावरणीय व दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम पर निर्भर करते हैं। अंतर में इनका जितना क्षयोपशम होता है बाहरी जगत् में इन्द्रियों की उपलब्धि के रूप में इनकी उतनी अभिव्यक्ति होती है। इन्द्रियों की उत्पत्ति का सम्बन्ध आत्मा की आंतरिक वृत्ति से है और गति का सम्बन्ध आंतरिक प्रवृत्तियों है। इसी का विवेचन आगे प्रकारान्तर से किया जा रहा है। ___ आचारांग सूत्र में भगवान महावीर ने प्रकृति के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नियम का उद्घाटन किया है, यथा- जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहि तहा अंतो। अर्थात् जैसा अंदर है वैसा ही बाहर है और जैसा बाहर है वैसा ही अन्दर है। इस नियमानुसार प्राणी के आंतरिक स्तर पर जैसे-अध्यवसाय, भाव या परिणाम होते हैं उसे उस परिणाम के परिणामस्वरूप बाहरी स्तर पर शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदि मिलते हैं। यही कारण है कि जिस प्राणी में जितना मोह, जड़ता (मूर्छा) होती है उसकी इन्द्रियों का विकास उतना ही कम होता है और जैसे-जैसे अंतर जगत् में विषय-सुख जनित मोह (मूर्छा) घटता जाता है और उससे ज्ञान का तथा दर्शन का आवरण हटता जाता है वैसे-वैसे चेतना का विकास होता जाता है अर्थात् उसकी संवेदन (अनुभव) करने की शक्ति बढ़ती जाती है और उसी के अनुरूप बाह्य जगत् में इन्द्रियों का विकास होता जाता है। कोई भी प्राणी कितना ही मोह ग्रसित (मूर्च्छित) क्यों न हो, उसके ज्ञान व दर्शन की शक्ति सर्वथा लुप्त नहीं होती है। यदि प्राणी की ज्ञान-दर्शन की शक्ति पूर्ण लुप्त हो जाती तो वह पूर्ण जड़ता को प्राप्त नाम कर्म 161
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy