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विषभक्षण से मृत्यु प्रत्यक्ष देखी जाती है। अतिभोग से मधुमेह, तपेदिक (क्षय) रोग तथा चिंता से अल्सर, रक्तचाप आदि रोग होते हैं, जो आयु क्षीण करने के नोकर्म बनते हैं।
कर्मसिद्धान्तानुसार नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव ये चार आयु हैं और ये चार ही गतियाँ हैं। इनमें से नरक गति और नरक आयु ये दोनों अशुभ प्रकृतियाँ है। इन दोनों कर्म- प्रकृतियों का प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध, प्रदेश बंध ये चारों बंध अशुभ योग व कषाय से होते हैं। इनके बंध के कारणों में कोई अन्तर नहीं है। परन्तु तिर्यंच गति एवं तिर्यंच आयु में बहुत अन्तर है। तिर्यंच गति अशुभ है, क्योंकि वह भोग प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है अतः इसके स्थिति, अनुभाग व प्रदेश बंध अशुभ हैं। इनकी वृद्धि योग की अशुभता व कषाय की वृद्धि की सूचक है। परन्तु तिर्यंच की आयु का सर्जन विषय भोग से नहीं होकर विषय भागों में तथा कषाय में कमी होने से होता है। अतः तिर्यंच आयु प्रकृति शुभ है और इस आयु का स्थिति बंध 1, अनुभाग बंध एवं प्रदेश बंध भी शुभ है। तिर्यंच गति अशुभत्व की और तिर्यंच आयु शुभत्व की सूचक है। परन्तु मनुष्य गति और देवगति में और इनकी आयु के स्थितिबंध में अन्तर है। इन गतियों का स्थिति बंध तो कर्तृत्व- भोक्तृत्व एवं अहंत्व स्वरूप भावकषाय से होता है। अतः जितना कषाय अधिक होता है, उतना ही स्थिति बंध अधिक होता है लेकिन आयु का स्थिति बंध, सरलता, मृदुता आदि सदगुणों, सदप्रवृत्तियों एवं संयम से होता है, अर्थात् कषाय की कमी से होता है। इन गुणों से जीवनी शक्ति का ह्रास रुकता है, उसमें वृद्धि होती है। आयु कर्म का स्थितिबंध विशद्धि भाव से ___कर्मों की कुल 148 प्रकृतियों में तिर्यंच, मनुष्य और देव इन तीन शुभ आयुओं को छोड़ कर शेष 145 कर्मप्रकृतियों के स्थिति बंध का कारण कषाय है। इनमें कषाय की वृद्धि से स्थिति बंध में वृद्धि होती है और कषाय में कमी से स्थिति बंध कम हो जाता है। प्राणी का जीवन आयु पर निर्भर करता है। अतः आयु जीवनी-शक्ति पर निर्भर करती है। जीवनी-शक्ति प्राणों पर निर्भर करती है। प्राणान्त होना, निष्प्राण होना ही मृत्यु है, आयु का क्षय होना है। प्राणशक्ति संयम पर निर्भर करती है। जितना संयम का पालन किया जाता है उतनी ही प्राणशक्ति कम क्षीण होती है, अपितु बढ़ती
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आयु कर्म