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स्फुरणा होना उदीरणा कहा जाता है और उस स्फुरणा का प्रवृत्ति रूप में प्रकट होना उदय कहा जाता है।
कर्म के उपर्युक्त्त चारों प्रकार के बंध तथा सत्ता, उदीरणा व उदय को एक उदाहरण से समझें- 'क' और 'ख' दो मित्र हैं। 'ख' को शराब पीने की आदत है, उसने अपने मित्र 'क' से जिसने कभी शराब नहीं पी है, शराब पीने का आग्रह किया। उसने मित्र का मन रखने के लिए शराब की घूट ली। उसे शराब का स्वाद व गंध दोनों अरुचिकर लगे, फिर भी उस शराब से उत्पन्न नशा कुछ रुचिकर लगा। फिर वह 'क' अपने 'ख' मित्र के आग्रह से बार-बार शराब पीने लगा जिससे धीरे-धीरे नशे का प्रभाव उस पर छाता गया। अब उसे शराब की गंध व स्वाद रुचिकर लगने लगे। इस प्रकार 'क' द्वारा शराब पीने की बार-बार की गई प्रवृत्ति ने शराब पीने की प्रकृति (आदत) का रूप धारण कर लिया। इसे कर्म-साहित्य में प्रकृति बंध कहा जा सकता है। जितनी बार और जितनी अधिक शराब पियेगा उतनी ही उसकी यह आदत पुष्ट होती जायेगी, इसे कर्म का प्रदेश-बंध कहा जा सकता है। वह शराब पीने में जितना अधिक या कम रस लेगा उसे भविष्य में शराब पीने में उतना ही अधिक या कम सुख (रस) का अनुभव होगा, यह रस बंध है तथा अधिक तीव्र रस के साथ पी गई शराब का प्रभाव अधिक समय तक टिकने वाला होगा, इसे स्थिति बंध कह सकते हैं।
शराबी के इस उदाहरण में वर्तमान में शराब के सुख का भोग करने के कारण भविष्य में शराब के सुख (रस) के भोगने की इच्छा का प्रभाव अंकित होना बंध है। शराबी अपने व्यवसाय में लगा हुआ होने से कार्य में अत्यधिक व्यस्त है। उसमें इस समय शराब पीने की इच्छा जागृत नहीं हैं, फिर भी अंतःकरण में शराब पीने की इच्छा या संस्कार व उसका अस्तित्व अर्थात् सत्त्व विद्यमान है, यह कर्म की सत्ता है। वह शराब की दुकान के पास से निकला और शराब पीने की इच्छा-स्फुरणा जागृत हुई, यह उदीरणा है और शराब पीकर उसका रसानुभव करना उदय है। इसी प्रकार हर प्रवृत्ति का बंध, सत्ता उदीरणा व उदय समझना चाहिये। कर्म प्रकृतियाँ
कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं- 1. ज्ञानावरणीय 2. दर्शनावरणीय 3. वेदनीय 4. मोहनीय 5. आयु 6. नाम 7. गोत्र 8. अन्तराय।
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