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सतत प्रयत्नशील रहती है। शरीर में प्रवाहित रक्त में वहाँ के अंगों में स्थित विकार मिल जाते हैं, जिससे रक्त अशुद्ध हो जाता है। उस रक्त को शुद्ध करने के लिए फेफड़े निरंतर कार्य करते रहते हैं । कार्बन-डाई-आक्साइड को निकालकर ऑक्सीजन उपलब्ध कराते रहते हैं। फेफड़े की यह क्रिया ही श्वासोच्छ्वास कहलाती है। यह फेफड़े की क्रिया यदि पांच-दस मिनट के लिए भी रुक जाये तो प्राणी का जीना कठिन हो जाए। इसी प्रकार पसीना, मल-मूत्र, कफ, श्लेष्म आदि शरीर में उत्पन्न हुए विजातीय (विकृत) द्रव्यों को बाहर निकालने की प्राकृतिक प्रक्रियाएँ हैं । प्राकृतिक चिकित्सा- साहित्य में प्रचुर - प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि रोगों की उत्पत्ति शरीर में उत्पन्न विकार, विष व विजातीय द्रव्यों को दूर कर शरीर को स्वस्थ करने की प्राकृतिक प्रक्रिया है, प्राकृतिक उपाय है। रोग शरीर के लिए वरदान हैं, अभिशाप नहीं । जब प्राण शक्ति की कमी हो जाती है जिससे यह प्रक्रिया नहीं हो पाती है तो शरीर में विकार इकट्ठे हो जाते हैं। शरीर विजातीय द्रव्यों का घर बन जाता है और फिर विनाश को प्राप्त हो जाता है। रोग का शरीर में प्रकट होना तो लक्षण मात्र है, अन्य कुछ नहीं। शरीर में सुई के अग्रभाग जितनी छोटी सी कांटों की नोक भी घुस जाय तो शरीर से जब तक वह निकल न जाय, चैन नहीं पड़ता है। आशय यह है कि प्रकृति को शरीर में विजातीय द्रव्य विद्यमान रहना सहन नहीं होता है। प्रकृति को विकृति पसंद नहीं है। यह प्राकृतिक - प्रक्रिया, प्राकृतिक - विधान अथवा प्राकृतिक न्याय है। इस प्राकृतिक विधान या न्याय में प्राणी का हित ही निहित है क्योंकि इसमें प्राणी के शरीर को स्वस्थ बनाने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। जब शरीर इतना विकार ग्रस्त हो जाता है कि उन विकारों को दूर कर सकना संभव नहीं रहता तो शरीर का विनाश हो जाता है- मृत्यु हो जाती है पुनः नवीन उपयुक्त शरीर मिलता है। इसीलिए वेदनीय कर्म की असातावेदनीय प्रकृति को भी जीव के लिये घातक नहीं कहा है, अपितु इसे अघाती कर्म प्रकृति कहा है। इसी प्रकार आत्मा में जब राग-द्वेष आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं तो कर्म-ग्रन्थियों का निर्माण हो जाता है, फिर उन विकारों को दूर करने के लिए प्राकृतिक - प्रक्रिया - प्रारम्भ होती है। अंतर में स्थित विकार कर्म रूप में उदय में आकर नष्ट होते जाते हैं । कर्मों का उदय में
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वेदनीय कर्म
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