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________________ दर्शनावरण कर्म दर्शन एवं दर्शनावरण कर्म का स्वरूप ___ जड़ और चेतन में मुख्यतः दो मौलिक बातों का अन्तर है, यथाअजीव या जड़ को अनुभव (संवेदन) नहीं होता है तथा वह विचार नहीं कर सकता है। ये ही दो बातें दर्शन और ज्ञान गुण से पुकारी जाती हैं। इनमें से जिस कर्म, कार्य या क्रिया से दर्शन गुण आच्छादित होता है, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा जाता है और जिससे ज्ञान गुण आच्छादित होता है उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहा जाता है। द्रव्यों, वस्तुओं, उनके गुणों व अवस्थाओं, उनके पारस्परिक सम्बन्धों व सम्बन्धों के नियमों को जानना ज्ञान है। प्राणी प्रकृति के नियमों की यथार्थता को जितना-जितना समझता जाता है, उतना-उतना उसके ज्ञान का विकास होता जाता है। मोह के कारण प्राणी में जड़ता आ जाती है। जड़ता आने से उसके देखने (दर्शन- संवेदन करने, साक्षात्कार करने) की शक्ति व जानने की शक्ति क्षीण होती जाती है। जैसे- जैसे चेतना से मूर्छा (मोह) हटती जाती है, वैसे-वैसे उसकी संवेदनशक्ति बढ़ती जाती है, यह दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम व उसका परिणाम है। संवेदन के आधार पर ही प्राणी की जानने की शक्ति का आविर्भाव होता है। अतः पहले दर्शन होता है, फिर ज्ञान होता है। आचार्यों ने सामान्य को दर्शन और विशेष को ज्ञान कहा है। आजकल इसका कुछ लोग इस प्रकार अर्थ करते हैं कि सामान्य ज्ञान दर्शन है, परन्तु यह अर्थ समीचीन प्रतीत नहीं होता है। कारण कि यदि सामान्य शब्द से अभिप्राय यहाँ ज्ञान से लगाया जाय, तो फिर ज्ञान गुण के ही दो भेद हो जायेंगें 1. सामान्य ज्ञान और 2. विशेष ज्ञान। इससे ज्ञान गुण से भिन्न दर्शन गुण के अस्तित्व के लोप होने का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा। परन्तु जैनागम में जीव के ज्ञान और दर्शन ये दो भिन्न-भिन्न दर्शनावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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