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________________ अनादर ही अविवेक है। यही कारण है कि अविवेक युक्त मति-श्रुत जो अज्ञान रूप हैं, वे ही विवेक युक्त होने पर सम्यक् ज्ञान हो जाते हैं। फिर ये ही मति-श्रुत ज्ञान कहे जाते हैं। यह नियम है कि श्रुत ज्ञान सर्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानने वाला होता है। सम्यक ज्ञान होने पर संसार के सभी पदार्थ तथा उनसे मिलने वाले विषय-सुख क्षणिक, अनित्य, नश्वर, व्यर्थ तथा त्याज्य लगते हैं। इनके त्याग देने पर इनसे संबंधित ज्ञान की लेश मात्र भी आवश्यकता नहीं रहती है। उसे तत्त्व-ज्ञान हो जाता है। लगता है कि इसी दृष्टि से श्रुत को भी केवलज्ञान के समान ही सर्व द्रव्य, क्षेत्र , काल, भाव का ज्ञाता कहा है। आशय यह है कि नित्य-अनित्य, विनाशी-अविनाशी, उत्पाद-व्यय, ध्रुव के भेद का ज्ञान होना ही विवेक है। यही भेदज्ञान है। यह भेद ज्ञान प्रकारान्तर में सत्-असत् का भेदज्ञान, स्व-पर का भेदज्ञान, चेतन-जड़ का भेदज्ञान कहा जाता है। यह भेदज्ञान ही अनित्य से सम्बन्ध–विच्छेद कर ध्रुव से अभिन्न कर देने में सहायक है। 10 61 ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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