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प्रश्न उठता है कि प्राणी निज ज्ञान का, विवेक का अनादर क्यों करते हैं, तो कहना होगा कि मोह के तथा विषय - कषायजन्य सुखों के भोग की आसक्ति में आबद्ध होने के कारण ही प्राणी निज ज्ञान का अनादर करता है। जब तक प्राणी की दृष्टि तत्काल प्रतीत होने वाले विषय सुख पर रहती है, उस विषय सुख के क्षणिक स्वभाव की ओर नहीं जाती यदि कदाचित् दृष्टि जाती भी है तो विवेक जागृत नहीं होता और विवेक जागृत भी होता है, तब भी विषय - सुख की लोलुपता एवं दासता में आबद्ध प्राणी अपने विवेक की उपेक्षा करता है, यही ज्ञान का तथा विवेक का अनादर है, यह ही समस्त दोषों की व समस्त कर्म - बन्धनों की जड़ हैं। इसी से आठों ही कर्मों का बंध होता है । फलस्वरूप प्राणी को विवश होकर न चाहते हु भी दुःख भोगना पड़ता है । अतः जिन्हें दुःख से पूर्णतया सदा के लिए मुक्ति पाना है, उन्हें निज ज्ञान का आदर कर विषय - कषायजन्य सुखों का त्याग करना ही होगा । मानव जीवन की सार्थकता तथा सफलता इसी में निहित है। ज्ञान के आदर से ही समस्त दोषों, दुःखों व कर्मों का क्षय संभव है। इसी से शान्ति, मुक्ति, अक्षय-अनन्त सुख की उपलब्धि होने वाली है।
इन्द्रिय जगत् के ज्ञान से जो भोग का सुख मिलता है, उसमें प्राणी इतना आबद्ध हो जाता है कि उसे इस सुख की उपलब्धि ही जीवन लगने लगती है, जबकि वास्तविकता यह है कि वह सुख कामना पूर्ति से नहीं मिलता, कामना के अभाव से मिलता है । प्राणी इस तथ्य को नहीं समझ पाता, यह ही मूल भूल है । जब प्राणी विषय - सुख की दासता में आबद्ध हो जाता है तो अपनी बुद्धि और निजज्ञान का उपयोग विषय-भोग एवं विषय सुख की प्राप्ति में करता है। विषय - सुख क्षणिक है, पराधीनता, आकुलता और दुःख युक्त है । उस विषय - सुख और उन सुखों की भोग्य सामग्री को वह नित्य, स्थायी बनाना चाहता है । पराधीनता को स्वाधीनता समझता है, विषय-विकार को जीवन समझता है, यह सब अज्ञान है निजज्ञान, विवेक एवं श्रुतज्ञान का प्रभाव न होना, तदनुरूप आचरण न करना, ज्ञान पर आवरण है ।
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ज्ञान गुण और ज्ञानोपयोग में अन्तर
पहले कह आए हैं कि ज्ञान, दर्शन गुण के उपयोग के घटने-बढ़ने से ज्ञान - दर्शन गुण घटता-बढ़ता नहीं है। मोहनीय कर्म के घटने-बढ़ने
ज्ञानावरण कर्म
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