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________________ ज्ञानी के समान आदर करना होगा तथा दर्शन में सहायक ऐनक का भी आदर करना होगा। ऐसे अर्थ करना हास्यास्पद तथा निष्प्रयोजन भी होंगे। आशय यह है कि वहाँ ज्ञान-दर्शन शब्द से अभिप्रेत अर्थ आत्मा का ज्ञान-दर्शन गुण ही है, न कि उनके स्वामी ज्ञानी व उनकी साधन भूत सामग्री पुस्तक आदि, क्योंकि प्राणिमात्र ज्ञान-दर्शन गुण युक्त होने से ज्ञानी व दर्शनी है। कोई भी प्राणी ज्ञान-दर्शन रहित नहीं है। अतः प्राणिमात्र का अनादर, ज्ञान व दर्शन का अनादर होगा। परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है। यदि ज्ञानी व दर्शनी शब्द का अभिप्राय सम्यक ज्ञानी व सम्यक दृष्टि व्यक्ति को लिया जाय और उनका अनादर माना जाए, तो एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय के ज्ञान-दर्शनावरणीय का बंध ही नहीं होगा कारण कि सम्यग्ज्ञानी और सम्यक् दृष्टि व्यक्ति तो विरले ही होते हैं। इनका उनसे संपर्क ही नहीं होता है। तात्पर्य यह है कि इस प्रसंग में ज्ञान शब्द ज्ञानी व ज्ञान की साधनभूत सामग्री से संबंधित नहीं है, कारण कि कोई व्यक्ति पाकशास्त्र के ज्ञाता एवं पाक-शास्त्र को हजार बार प्रणाम करे, पाकशास्त्र की पूजा करे, तो उससे भोजन नहीं बनने वाला है, कोई लाभ नहीं होने वाला है, भूख नहीं मिटने वाली है। वस्तुतः यहाँ ज्ञान के अनादर से अभिप्राय उस ज्ञान व विवेक से है, जो शाश्वत है, जो जीव का स्वभाव है। उस ज्ञान से नहीं है, जो इन्द्रिय जन्य है, परिवर्तनशील है। जैसे मैंने चक्षुइन्द्रिय से कश्मीर की प्राकृतिक छटा का सौन्दर्य देखा, उसका ज्ञान हुआ, मैंने संगीत सुना उसके माधुर्य का ज्ञान हुआ, मैंने मिष्ठान्न खाया उसकी मधुरता का ज्ञान हुआ। अर्थशास्त्र पढ़ा, काम-शास्त्र पढ़ा, गणितशास्त्र पढ़ा, भाषा का अध्ययन किया, इन सबका ज्ञान हुआ और मैंने इन सब ज्ञानों को अनावश्यक माना, व्यर्थ माना, बंधन का कारण माना या अन्य किसी कारण से मैंने उनकी उपेक्षा की, अनादर किया, भूल गया, इससे ज्ञानावरण कर्म का बंध नहीं होने वाला है- ज्ञान गुण की हानि नहीं होने वाली है, क्योंकि यह सारा ज्ञान इन्द्रियों के भोग से संबंधित ज्ञान है। नश्वर ज्ञान है, जिसे किसी न किसी दिन भूलना ही है और भूलने में ही हित है। अतः यहाँ ज्ञान शब्द से इन शास्त्रों का ज्ञान अभिप्रेत नहीं है। इसीलिए जैनागमों में साधकों के लिए इन शास्त्रों के पढ़ने का निषेध किया गया है। अर्थात् इन शास्त्रों का पढ़ना ज्ञान का अनादर है। 42 ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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