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________________ शरण का त्याग करके, दूसरे शब्दों में परिग्रह का एवं पराधीनता का त्याग करके स्वाधीन (मुक्त) हो जाता है। जो अविनाशी है, वही अमर है, जो अमर है वही मुक्त है, जो मुक्त है, वही सच्चिदानन्द है। अविनाशित्व, अमरत्व, मुक्तत्व, पूर्णत्व आदि गुणों में जातीय एकता है। अतः इनमें से किसी भी एक गुण की पूर्णता से अन्य समस्त गुणों का आविर्भाव उपलब्धि स्वतः हो जाता है। सब गुण परस्पर ओतप्रोत हो जाते हैं, भिन्नता मिट जाती है और वह सर्वज्ञ, वीतराग, परमात्मा हो जाता है। उदाहरणार्थकेवल एक अनित्यता के बोध से भरत चक्रवर्ती वीतराग हो सर्वज्ञ हो गये। एक मात्र अशरणत्व के बोध से ही अनाथी मुनि वीतराग सर्वज्ञ हो गए। एक मात्र संसार की असारता, दुःखमयता के बाध से शालिभद्र तथा एकत्व के बोध से नमिराज ऋषि वीतराग-सर्वज्ञ हो गए। जो वीतराग हो जाता है, वह निर्विकार हो जाता है, शुद्ध हो जाता है । जो निर्विकार और शुद्ध हो जाता है, उसका ज्ञान भी निर्विकार व शुद्ध हो जाता है अर्थात् उसके ज्ञान में किसी प्रकार की मिलावट या दोष नहीं रहता है। जिसमें किंचित् भी दोष या मिलावट न हो, उसे निर्मल, शुद्ध या केवल (ज्ञान) कहते हैं। इस दृष्टि से वीतराग अवस्था का जो निर्दोष-शुद्ध ज्ञान है, वह केवलज्ञान कहा जाता है। इसे अनन्तज्ञान, अभेद ज्ञान एवं अशेष ज्ञान भी कहा गया है। केवलज्ञान-सर्वज्ञता केवलज्ञानावरण कर्म के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होता है और केवलज्ञान होने से सर्वज्ञता की उपलब्धि होती है फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रहता है। आगे इसी पर प्रकाश डाला जा रहा है। सर्वे का अर्थ है- सबको जानने वाला । जो सबको जानता है, वही सर्वज्ञ है। जैनागम में उल्लेख है कि सबको वही जानता है, जो एक को जानता है तथा जो एक को जानता है, वह ही सबको जानता है। जैसाकि कहा है 'जे एगं जाणइसे सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइएगं जाणइ।। (आचारांग सूत्र) आचारांग के इस सूत्र का अभिप्राय ऐसा जान पड़ता है कि विश्व में जो नियम एक में काम करता है, वही नियम सब में काम करता है अर्थात् 32 ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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