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________________ अनन्त ज्ञान उत्पाद–व्यय-युक्त पदार्थ विनाशी हैं, नश्वर हैं, क्षर हैं। अतः इन पदार्थों का ज्ञान क्षर का ज्ञान है, विनाशी का ज्ञान है। निज का ध्रुव-स्वरूप अविनाशी है, अक्षर है। अतः अपने शाश्वत अस्तित्व का ज्ञान अक्षर ज्ञान है, अविनाशी ज्ञान है। अपने अस्तित्व का ज्ञान प्राणिमात्र को है, यहाँ तक कि एक शरीर में रहने वाले अनन्त निगोद जीवों को भी न्यूनाधिक रूप में यह ज्ञान रहता है, अतः उनमें भी अक्षरज्ञान का किंचित् अंश रहता ही है। अक्षर-अविनाशी, ध्रुव का पूर्ण ज्ञान उस साधक को ही संभव है, जो क्षर-पदार्थ, देह आदि से अपना सम्बन्ध पूर्णरूपेण विच्छेद कर लेता है। यह नियम है कि उत्पाद-व्यय-युक्त, क्षर-विनाशी पदार्थों से सम्बन्ध विच्छेद होते ही साधक अपने अक्षर, ध्रुव, अविनाशी स्वरूप में स्थित हो जाता है। उसे अक्षर, अविनाशी का अनुभव व बोध (ज्ञान) सदैव के लिए हो जाता है। जो अक्षर है वह अविनाशी है और जो अविनाशी है वह अनन्त है। अनन्त का ज्ञान भी अनन्त रूप होता है। इस दृष्टि से जो अपने आपको पूर्ण जानता है, अपने में पूर्ण स्थित हो जाता है, वह अनन्त ज्ञान का धनी हो जाता है। त्रिपदी का ज्ञाता साधक किसी एक वस्तु या व्यक्ति के वियोग को देखकर संसार की समस्त वस्तुओं, व्यक्तियों के संयोग में वियोग के दर्शन कर लेता है। किसी एक वस्तु के नाश से, एक व्यक्ति के मरण से, संसार की समस्त वस्तुओं के नाश का, अपने तथा समस्त अन्य व्यक्तियों के जीवन में मरण का दर्शन कर लेता है अर्थात् अनित्यता का दर्शन कर लेता है। किसी एक विषय भोग के सुख के साथ जुड़े क्षीणता, जड़ता, शक्ति-हीनता, अभाव आदि दुःख का अनुभव कर वह समस्त विषय-सुखों में दुःख का दर्शन कर लेता है। यह नियम है कि जो समस्त संयोगों में वियोग के दर्शन कर लेता है, वह सब संयोगों से परे (असंग) हो जाता है फिर उसका संयोग-वियोग से सम्बन्ध टूट जाता है, तदनन्तर उसका अविनाशी से नित्य योग हो जाता है। जो समस्त वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, घटना में अनित्यता का दर्शन कर लेता है, वह उस अनित्यता से परे हो जाता है, फिर वह ध्रौव्य का, अमरत्व का अनुभव कर लेता है। जो विषय-सुख में दुःख का दर्शन (अनुभव) कर लेता है, वह सुख-दुःख से परे हो, सच्चिदानन्द का अनुभव कर लेता है। वह पराश्रय का, पर की ज्ञानावरण कर्म 31
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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