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जैसे दूध और पानी का, आग और लोहे के गोले का सम्बन्ध होता है, उसी प्रकार जीव और कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध होता है, बंधन होता है। ____ जहाँ बंधन है, वहाँ पराधीनता है, दुःख है। दुःख स्वभाव से ही किसी भी प्राणी को पसंद नहीं है। सभी जीव दुःख से मुक्ति पाना चाहते हैं और दुःख से मुक्त होने का उपाय है- बंधन रहित होना। बंधन दो प्रकार का है- बाहरी और आन्तरिक बंधन। बाहरी बंधन का कारण भी आन्तरिक बंधन है। आन्तरिक बंधन विद्यमान रहते बाहरी बंधन नष्ट नहीं होते हैं। अतः आन्तरिक बंधनों का क्षय करना आवश्यक है। बंधन का नाश तभी संभव है जब बंधन का यथार्थ ज्ञान हो। ___ 'बंधन' है- पर से जुड़ना, पराधीन होना। पराधीनता दुःख है। अतः सर्वप्रथम बंधन के स्वरूप को समझना आवश्यक है। वस्तुतः यह बंधन बाहरी नहीं है, अपितु प्राणी की क्रियाओं व इच्छाओं से निर्मित आन्तरिक बन्धन है, जिसे जैन दर्शन में कर्म-बंध होना कहा है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम जो भी क्रिया, काय या विचार की प्रवृत्ति करते हैं, उसके प्रभाव का बिंब, चित्र या रूप हमारे अंतःस्तल पर अंकित हो जाता है। इसे साधारण भाषा में 'संस्कार पड़ना' व जैन दर्शन में 'कर्मबंध' कहा जाता है। हमारी प्रत्येक प्रवृत्ति के अनुरूप संस्कार की संरचना अनवरत होती रहती है तथा इन संस्कारों का अन्तरतम में संचय होता रहता है, जो भविष्य में उपयुक्त समय आने व अनुकूल निमित्त मिलने पर अभिव्यक्त होकर प्राणी को अपना परिणाम भोगने के लिए विवश करते हैं। जैन दर्शन में कर्म को पुद्गल, अचेतन भौतिक पदार्थ माना गया है। उसी प्रकार आधुनिक मनोविज्ञान भी इसे भौतिक रूप में स्वीकार करता है। आधुनिक मनोविज्ञान विचार व विचारों की तरंगों का रूप, रंग, आकृति आदि तो मानता ही है, साथ ही इन तरंगों की प्रेषण व ग्रहण-क्रियाओं को भी स्वीकार करता है। विचारों की इसी प्रेषण व ग्रहण विधि को 'टेलीपैथी' कहा जाता है। टेलीपैथी के प्रयोग में एक व्यक्ति द्वारा हजारों मील दूर बैठे व्यक्ति को विचारों द्वारा संदेश भेजने में विज्ञान ने पर्याप्त सफलता प्राप्त की है। टेलीपैथी की महत्ता इससे विशेष बढ़ जाती है कि जहाँ पनडुब्बी में रेडियों तरंगे भी पहुँचने में असमर्थ हैं, वहाँ विचारों की तरंगे पहुँचने में समर्थ हैं।
प्राक्कथन