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________________ 11. 12. 13. 14. गमिक श्रुत- लक्ष्य एवं साध्य की अपेक्षा श्रुतज्ञान बार-बार अभेद रूप में प्रकट होता है। इस प्रकार साध्य की अपेक्षा श्रुतज्ञान गमिक श्रुत है । अगमिक श्रुत- साधना की अपेक्षा से किसी को विचार पथ में अनित्य, अशरण रूप श्रुतज्ञान इष्ट होता है, किसी को सद्प्रवृत्ति व कर्त्तव्य रूप इष्ट होता है। कोई साधक सर्वांश में कामना के त्याग को, कोई सर्वांश में ममत्व के त्याग को, कोई सर्वांश में अहंत्व के त्याग को, कोई अनित्य के संग के त्याग को, कोई अशरण भावना को इत्यादि साधना को अपनाता है। ये सब श्रुतज्ञान के ही रूप या भेद हैं। अतः भेद रूप में साधना का ज्ञान अगमिक श्रुत है । अंगप्रविष्ट श्रुत- अपने ही शरीर के भीतर अंतरंग में ध्यान की गहराई में प्रवेश कर अनित्य बोध जगना, समत्व पुष्ट होना, वीतरागता की ओर बढ़ना अंगप्रविष्ट श्रुत है । अंगबाह्य श्रुत– रोग, शोक, वियोग आदि शरीर की बाह्य स्थितियों को देखकर वैराग्य उत्पन्न होना, वैराग्य द्वारा राग को खाकर वीतरागता की ओर बढ़ना अंग बाह्य श्रुतज्ञान है श्रुतज्ञान के जो दो प्रमुख भेद अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य कहे जाते हैं, उनका उल्लेख उपर्युक्त 14 प्रकारों में हो गया है । अंगबाह्य को अनंगप्रविष्ट भी कहा जाता है । अवधिज्ञान एवं अवधिज्ञानावरण इन्द्रिय एवं मन के आधार के बिना अन्तर्मुखी होने पर आत्मप्रदेशों में संवेदनात्मक अनुभव होता है, वह अवधि दर्शन है। दर्शन के पश्चात् संवेदनाओं के प्रकार का ज्ञान होता है, वह अवधिज्ञान है । इसका साधना परक अर्थ है— 22 “रूपिष्ववधेः” – तत्त्वार्थ सूत्र अ. 1 सूत्र 28 अधोगतभूतद्रव्यविषयो ह्यवधिः । अधोऽधो विस्तृतं धीयते परिच्छिद्यते रूपि वस्तु येन ज्ञानेनेत्यवधिः । 'अवधिज्ञान' रूपी पदार्थों को ही जानता है । अवधिज्ञान शरीर में अधोगतभूत अर्थात् नीचे भीतर की ओर बहुत से पदार्थों को विषय करता ज्ञानावरण कर्म
SR No.023113
Book TitleBandhtattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhiyalal Lodha
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2010
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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