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________________ तृतीयो विलासः [४४७] अत्रायोग्यस्यापि राजादेशस्य धर्माधिकारिणा गुल्यप्राहिणा न्यायपरिकल्पनया योग्यत्वेनानुमोदनादयं प्रलापः। यहाँ राजा की अयोग्य आज्ञा का भी धर्माधिकारी गुणग्राही द्वारा न्याय की परिकल्पना से योग्यता के साथ अनुमोदन करने से यह प्रलाप है। (प्रहसनस्य भेदः) शुद्धं कीर्ण वैकृतं च तच्च प्रहसनं त्रिधा । प्रहसन के भेद- वह प्रहसन तीन प्रकार का होता है- (१) शुद्ध (२) कीर्ण और (३) वैकृत(२८३पू.) (तत्र शुद्धम् )शुद्धं श्रोत्रियशाखादेवेषभाषादिसंयुतम् ।।२८३।। चेटीचेटजनव्याप्तं तल्लक्ष्यं निरूप्यताम् । आनन्दकोशप्रमुखं तथा भगवदज्जुकम् ।। २८४।। (१) शुद्ध प्रहसन- पाखण्डी श्रोत्रिय इत्यादि के वेश, भाषा इत्यादि में संयुक्त, चेटी चेट लोगों से व्याप्त प्रहसन शुद्ध प्रहसन होता है। आनन्दकोश, भगवदज्जुक इत्यादि इसके उदाहरण है।।२८३उ.-२८४॥ (अथ कीर्णम् ) कीणं तु सर्वैर्वीथ्यङ्गैः सङ्कीर्णं धूर्तसङ्गलम् । तस्योदाहणं ज्ञेयं बृहत्सौभद्रकादिकम् ।। २८५।। (२) कीर्ण- सभी वीथ्यङ्गों से सम्पन्न तथा धूर्तों से व्याप्त प्रहसन कीर्ण या सङ्कीर्ण प्रहसन कहलाता है। इसका उदाहरण बृहत्सौभद्रक इत्यादि हैं।।२८५॥ (अथ वैकृतम् ) यच्चेदं कामुकादीनां वेषभाषादिसङ्गतः । षण्डतापसवृद्धाधैर्युतं तद् वैकृतं भवेत् ।। २८६ ।। कलिकेलिप्रहसनप्रमुखं तदुदाहृतम् । (३) वैकृत- जो कामुक इत्यादि लोगों की वेष और भाषा से समन्वित और हिजड़ा, तपस्वी तथा वृद्ध इत्यादि लोगों से युक्त होता है, वह वैकृत प्रहसन होता है। कलिकेलि प्रहसन आदि उदाहरण हैं।।२८६-२८७पू.।। अथ डिम: ख्यातेतिवृत्तं निहाँस्यश्रृङ्गारं रौद्रमुद्रितम् ।। २८७।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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