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________________ [ ३९८] रसार्णवसुधाकरः । द्वादश (अक्षरों वाले) पदों वाली नान्दी जैसे अनर्घ राघव (१/१)में विघ्नशान्ति के लिए कौमोदकी नामक गदा से शोभायमान भगवान् विष्णु के उन नेत्रों की उपासना करते हैं जिनमें कोक की प्रीति तथा चकोर के व्रतान्त भोजन में उपयुक्त सूर्य की चन्द्रात्मक ज्योति विद्यमान है, जिन सूर्य-चन्द्रात्मक नेत्रों के सम्पर्क से आधा विकसित तथा आधा मुकुलित भगवान् का नाभिकमल शंख की समानता को प्राप्त करा दिया जाता है।।606।। यहीं पर चन्द्र नाम से चिह्नित मङ्गलार्थ पद की अधिकता को भी देख लेना चाहिए। नान्द्यन्ते तु प्रविष्टेन सूत्रधारेण धीमता । प्रसाधनाय रङ्गस्य वृत्तियोंज्या हि भारती ।।१३९।। भारती वृत्तियोजना- नान्दी के अन्त में बुद्धिमान् सूत्रधार के द्वारा प्रवेश करके रङ्गमञ्च (तथा नटों) को तैयार करने (सजाने) के लिए भारती वृत्ति को जोड़ना चाहिए।।१३९॥ अङ्गान्यस्याश्च चत्वारि भरतेन बभाषिरे । प्ररोचनामुखे चैव वीथीप्रहसने इति ।।१४०।। वीथी प्रहसनं स्वस्वप्रसङ्गे वक्ष्यते स्फुटम् । भारती वृत्ति के अङ्ग- भरत ने भारती वृत्ति के चार अङ्गों को कहा है- (१) प्ररोचना (२) आमुख (३) वीथी और (४) प्रहसन। इनमें से वीथी और प्रहसन का निरूपण आगे उन-उन प्रसङ्गों में किया जाएगा॥१४०-१४१५.।। सदस्यचित्तवृत्तीनां सम्मुखीकरणं च यत् । प्ररोचना तु सा प्रोक्ता प्राकृतार्थप्रशंसया ।।१४१।। (१) प्ररोचना- प्रस्तुत की प्रशंसा के द्वारा सामाजिकों की चित्त-वृत्तियों का जो सम्मुखीकरण (उत्कण्ठित कर देना) है वह प्ररोचना कहलाता है।।१४१३.१४२पू.)। प्रशंसा तु द्विधा ज्ञेया चेतनाचेतनाश्रया ।।१४२।। प्रशंसा के प्रकार- चेतन और अचेतन के आश्रय (आधार) से प्रशंसा दो प्रकार की होती है- (चेतनाश्रित और अचेतनाश्रित) ॥१४२उ.।। अचेतनौ देशकालौ कालो मधुशरन्मुखः । अचेतन- वसन्त, शरद् इत्यादि समय तथा स्थान अचेतन कहलाते हैं।।143.।। तत्र वसन्तप्रशंसया प्ररोचना यथा पद्मावत्याम् राजत्कोरककण्टका मधुकरीझङ्कारहुङ्कारिणीरालोलस्तबकस्तनीरविरलाधूतप्रवालाधराः । आलिङ्गन्ति लतावधूरतितरामासन्नशाखाकरैरत्यारूढरसानुभूतिरसिकाः कान्ते वसन्तोदये ।।607 ।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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