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________________ स्वस्मिन् कल्पनात् क्षोभः । तृतीयो विलासः [ ३८९ ] जैसे रत्नावली (३/१६) में राजा - (आगे बढ़कर गले का फंदा निकालता हुआ ) अरी साहस करने वाली ! तू यह अकार्य क्यों कर रही हो ? फन्दा तुम्हारे गले में पड़ने पर मेरे प्राण ही निकले जा रहे हैं। अतः (फाँसी लगा कर ) मरने से हटाने का यह प्रयत्न स्वार्थ (अपने को बचाने के लिए) भी है। हे प्रिये ! इस अकार्य ( फाँसी लगाने) को छोड़ दो। 1593।। यहाँ (कारण) वासवदत्ता के गले में फन्दा होने पर उससे उत्पन्न कार्यभूत प्राणों का गले तक आना उदयन द्वारा अपने में कल्पित होने के कारण क्षोभ है। अथ मनोरथ: मनोरथस्तु व्याजेन विवक्षितनिवेदनम् । (२९) मनोरथ- बहाने से अपने मनोरथ का निवेदन (सङ्केत) मनोरथ कहलाता है ।। १२०पू. ।। यथाभिज्ञानशाकुन्तले (३ / २१ पद्यादनन्तरम्) - 'शकुन्तला - (पदान्तरं गत्वा परिवृत्य प्रकाशम्) मो लदावल्लअ! संदावहारअ आमंतेमि तुमं पुणो परिभोअस्य' ( भो अतावलय सन्तापहारक आमन्त्रये त्वां पुनः परिभोगाय ) । अत्र - लतामण्डपव्याजेन दुष्यन्तामन्त्रणं मनोरथ: । जैसे अभिज्ञानशाकुन्तल में ( ३ / २१ पद्य के बाद) कष्ट को शकुन्तला - (कुछ पग जाकर पुनः पीछे की ओर मुख करके प्रकट रूप से) हे दूर करने वाले लतासमूह! तुम्हे फिर उपभोग के लिए आमन्त्रित करती हूँ। यहाँ लतामण्डप के बहाने दुष्यन्त को आमन्त्रित करना मनोरथ है। अथानुक्तसिद्धिः प्रस्तावेनैव शेषार्थो यत्रानुक्तोऽपि गृह्यते । । १२० ।। अनुक्तसिद्धिरेषा स्यादित्याह भरतो मुनिः । (३०) अनुक्तसिद्धि - प्रस्ताव के द्वारा ही शेष अनुक्त- अर्थ के ग्रहण हो जाने को आचार्य भरत ने अनुक्तसिद्धि कहा है ।। १२०उ.१२१पू. ।। यथाभिज्ञानशाकुन्तले (१/२५ पद्यात्पूर्वम्) - 'अनसूया - अज्ज! पुरा किल तस्स राएसिणो उग्गे तवसि वठ्ठमाणस्स कि वि जादसंकेहि देवेहिं मेणआ णाम अच्छरा णिअमविग्धकारिणी पेसिदा । (आर्य पुरा किल तस्य राजर्षेरु तपसि वर्तमानस्य किमपि जातशङ्कर्देवैर्मेनका नाम अप्सरा नियमविघ्नकारिणी प्रेषिता' । राजा - अस्त्येवान्यसमाधिभीरुत्वं देवानाम्। ततस्ततः । अनसूया - तदो वसन्तोदाररमणीए
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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