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________________ [ ३७६] रसार्णवसुधाकरः है। वे छूने लायक सूर्यकान्त (मणि) की तरह दूसरे तेज के पराभव से वह (तेज) उगल देते हैं।।577।। यहाँ तपस्वियों में छिपे हुए दाहात्मक तेज होने पर साध्य (शकुन्तला) में साधक (दुष्यन्त) सम्बन्धित तेज तिरस्कार से उत्पन तेज का समुद्गार के हेतु (कारण) सूर्यकान्त में देखने के कारण दृष्टान्त है। अथाभिप्राय:___ अभिप्रायस्त्वभूतार्थो हृद्यः साम्येन कल्पितः ।।१०५।। अभिप्राय परे प्राहुर्ममतां हृद्यवस्तुनि । (९) अभिप्राय- समानता के कारण हृदयग्राही अभूतार्थ की कल्पना अभिप्राय है। कुछ अन्य आचार्य हृदयग्राही वस्तु में ममता को अभिप्राय कहते हैं।।१०५उ.-१०६पू.॥ यथा रलावल्याम् (३/१३)राजा किं पद्मस्य रुचिं न हन्ति नयनानन्दं विधत्ते न किं वृद्धिं वा झषकेतनस्य कुरुते नालोकमात्रेण किम् । वक्वेन्दौ तव सत्ययं यदपरः शीतांशुरुज्जृम्भते दर्पः स्यादमृतेन चेदिह तदप्यस्त्येव बिम्बाधरे ।।578।। इत्यत्र चन्द्रसाम्येन मुखेऽमृतकल्पनादयमभिप्रायः। अथवा तत्रैवातिहधबिम्बाधरे राज्ञो ममत्वमभिप्रायः। जैसे रलावली (३/१३) मेंराजा तुम्हारा मुखकमल क्या कमल की कान्ति को दूर नहीं करता है अर्थात् अवश्य करता है। क्या वह नयनों को आनन्दित नहीं करता अपितु करता ही है। दर्शनमात्र से क्या कामवृद्धि नहीं करता (अथवा- समुद्र में बाढ़ नहीं लाता है) अर्थात् करता ही है, जो कि तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान है जैसे कि वह दूसरा चन्द्रमा ही निकल आया है। यदि चन्द्रमा को अपने में अमृत होने का अभिमान है तो वह भी तुम्हारे इस बिम्बाधर में है ही।।578 ।। यहाँ चन्द्रमा से समानता के कारण मुख में अमृत की कल्पना होने से अभिप्राय है। अथवा यहीं पर दूसरे आचार्यों के अनुसार अति हृदयग्राही बिम्बाधर में राजा का ममत्व होना अभिप्राय है। अथ निदर्शनं। यत्रार्थानां प्रसिद्धानां क्रियते परिकीर्तनम् ।।१०६।।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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