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________________ तृतीयो विलासः [३४५] रावण:- “साधु वत्स साधु। सत्यं ममानुजोऽसि” इत्युपक्रम्य- .. अनेन लङ्का यदकारि मत्पुरी हनूमतो गात्रगतेन भस्मसात् । निजापराधप्रशमाय तध्रुवं निषेवितुं मामुपयाति पावकः ।।(8.48)546।। इत्यन्तेन रावणकुम्भकर्णाभ्यामात्मश्लाघा कृतेति विचलनम्। जैसे वहीं (बालरामायण में)"करक- (प्रकट रूप से) कुम्भकर्ण ने क्या कहा? धनुष को छोड़ो। भुसुण्डी (भुजाली) का समूह, पट्टिश और मुद्गर दूर करो! मैं दौड़ रही वानरी सेना को खाते हुए तृप्ति तथा शत्रुक्षय करूंगा।(8.36)।।545।। रावण-ठीक है वत्स! ठीक है। सचमुच मेरे भाई हो।" यहाँ से लेकर हनुमान् के शरीर में लगने पर इस अग्नि ने जो मेरी पुरी लङ्का को भस्मसात् कर दिया था उस अपने अपराध की शान्ति के लिए यह अग्नि मेरी सेवा करने आ रहा है।।(8.48) 546।। यहाँ तक रावण और कुम्भकर्ण द्वारा आत्मप्रशंसा की गयी है अत: विचलन है। अथादानम् आदानं कार्यसंग्रहः ।।६६।। (13) आदान- कार्य -संग्रह (अर्थात् नाटक के विस्तार को समेटना) आदान कहलाता है।।६६उ.॥ यथा तत्रैव (बालरामायणे) नवमारेपुरन्दर:- सखे दशरथ! कथमयमनन्यसदृशाकारो रामभद्रपुरुषाकारः। अतश्च निर्दग्धत्रिपुरेन्धनोऽस्तु गिरिशः क्रौञ्चाचलच्छेदने पाण्डित्यं विदितं गुहस्य किमु तावज्ञातयुद्धोत्सवौ । लूत्वा पङ्कजलावमाननवनं वीरस्य लङ्कापते वीराणां चरितामृतस्य परमे रामः स्थितः सीमनि ।।(9.57)547 ।। इत्युपक्रम्य "रणरसिकसुरस्त्रीमुक्तमन्दारदामा स्वयमयमवतीर्णो लक्ष्मणन्यस्तहस्तः । विरचितजयशब्दो वन्दिभिः स्यन्दनाङ्गाद्
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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