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________________ द्वितीयो विलासः [ २९३] दिसम्भवात् । विभावादिज्ञानशून्यास्तिर्यञ्चो न भाजनं भवितुमर्हन्ति रसस्येति चेद, न। मनुष्येष्वपि केषुचित् तथानुभूतेषु रसविषयभावाभावप्रसङ्गात्। अत्र विभावादिसम्भवोऽपि रसं प्रति प्रयोजकः। न विभावादिज्ञानम्। ततश्च तिरछामप्यस्त्येव रसः इति। (शंका)- विभाव इत्यादि के सम्भव होने के कारण पक्षियों तथा म्लेच्छों से सम्बन्धित आभासता मानना उचित नहीं है। क्योंकि विभावादि के न होने पर रस के आस्वादन की योग्यता नहीं होती। समाधान- हे म्लेच्छरसवादी! शृङ्गाररस के अभिमानी (उड़ीसा के) राजा नरसिंह देव के चित्त का अनुवर्तन करने वाले विद्याधर कवि से पूरी तरह प्रभावित हो गये हो। इसी प्रकार का समर्थन करने वाले उस (विद्याधर) द्वारा भी एकावली नामक ग्रन्थ में किया(कहा गया है तिर्यग्राम से रसाभास-विषयक विद्याधर पर मत- पक्षियों में भी विभाव इत्यादि के होने से अन्य (आचार्य) तो पक्षियों में रसाभास का समर्थन करते हैं। किन्तु वह (पक्षियों में विभावादि होने से परीक्षा के लिए (परीक्षा की कसौटी पर कसने के लिए) तर्कसङ्गत नहीं है क्योंकि उनमें भी विभावादि होता है। (यदि यह कहा जाय कि) विभावादि के ज्ञान से शून्य होने के कारण पक्षी (रस के) पात्र नहीं होते तो ऐसी बात नहीं है। कुछ ऐसे उस प्रकार का अनुभव न करने वाले मनुष्यों में भी रस-विषयक भावों का अभाव होने के कारण (उनमें भी रस की सत्ता उत्पन्न नहीं हो सकती क्योंकि) विभाव इत्यादि की उत्पत्ति ही रस के प्रति प्रयोजक होती है, न के विभाव इत्यादि का ज्ञान। अत: पक्षियों में भी रस होता ही है। न तावत् तिरश्चां विभावत्वमुत्पद्यते। शृङ्गारे हि समुज्ज्वलस्य शुचिनो दर्शनीयस्यैव वस्तुनो मुनिना विभावत्वेनाम्नानात्। तिरश्चामुद्वर्तनमज्जनाकल्परचनाधभावाद् उज्ज्वलशुचिदर्शनीयत्वानामसम्भावना प्रसिद्धैव।। शिङ्गभूपाल का मत- पक्षियों में विभावता (विभाव का होना) नहीं प्राप्त होता। श्योंकि मुनि भरत ने शृङ्गार (रस) में समुज्ज्वल, शुचितायुक्त (पावन) और दर्शनीय वस्तु की ही विभावता को कहा है और पक्षियों में उबटन इत्यादि का लेप लगाने, स्नान करने, कल्पनाशक्ति आदि के अभाव के कारण, समुज्ज्वलता, शुचिता और दर्शनीयता की असम्भावना प्रसिद्ध ही है। अथ स्वजातियोग्यधर्म: करिणां करिणीं प्रति विभावत्वमिति चेत् न। तस्यां कक्ष्यायां करिणां करिणीरागं प्रति कारणत्वं न पुनर्विभावत्वम् । किञ्च जातियोग्यधर्मर्वस्तुनो न विभावत्वम् । अपि तु भावकचित्तोल्लासहेतुभिः रतिविशिष्टैरेव। किश, विभावादिज्ञानं नामौचित्यविवेकः, तेन शुन्यास्तिर्यञ्चो न विभावतां यान्ति। शंका- अपनी जाति के योग्य धर्म के अनुसार हाथी का हथिनी के प्रति विभावता तो होती ही है। समाधान- ऐसी बात नहीं है उस श्रेणी में हाथियों का हथिनी के राग के प्रति कारणता ही मानी जाएगी, न कि विभावत्व, क्योंकि जाति के योग्य धर्म द्वारा वस्तु का
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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