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द्वितीयो विलासः
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• यहाँ नायक के गुण की अधिकता से उत्पन्न विस्मय, स्मृति, हर्ष इत्यादि व्यभिचारी भावों द्वारा वृद्धि को प्राप्त तथा रोमाञ्च इत्यादि अनुभावों द्वारा व्यञ्जित अद्भुत-रसता को प्राप्त
अथ रौद्रःविभावैरनुभावैश्च स्वोचितैर्व्यभिचारिभिः ।। २४३।। क्रोधः सदस्यरस्यत्वं नीतो रौद्र इतीर्यते । आवेगगवौंग्ग्रामर्षमोहाद्या व्यभिचारिणः ।। २४४।।
प्रस्वेदश्रुकुटीनेत्ररागाद्यास्तत्र विक्रियाः ।
५. रौद्ररस- स्वोचित विभाव, अनुभाव और सञ्चारीभाव द्वारा सदस्यों (दर्शकों) में रसता को प्राप्त क्रोध (नामक स्थायी भाव) रौद्र (रस) कहलाता है। इसमें आवेग, गर्व, उग्रता, अमर्ष, मोह इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं। पसीना निकलना, भौहों को टेढ़ा करना, आँखे लाल हो जाना इत्यादि विक्रियाएँ होती हैं।।२४३उ.-२४५पू.॥
यथा करुणाकन्दले
आत्माक्षेपक्षोभितैः पीडितोष्ठः प्राप्तोद्योगैर्योगपद्यादभेद्यैः । भिन्धिच्छिन्धिध्वनिभिभिल्लवर्ग--
दोन्धैर्यैरनिरुद्धिर्निरुद्धः ।।486।।
अत्र वज्रविषयो भिल्लवर्गक्रोधः स्वात्माक्षेपादिभिरुद्दीपितो दन्धिपरुषवागाद्य-. नुमितैर्गस्यादिभिः परितोषितः स्वोष्ठपीडनशत्रुनिरोधादिभिरनुभावैरभिव्यक्तो रौद्रतया निष्पद्यते।
जैसे करुणाकन्दल में
अपने पर आक्षेप से क्षुब्ध, (क्रोध के कारण दाँतों से) होठों को दबाये हुए, परिश्रम (अथवा चेष्टा) से सम्पन्न, एक साथ मिले होने के कारण अभेदनीय, 'मारो काटो' इस प्रकार शोर करते हुए तथा घमंड से परिपूर्ण भिल्लों (जंगली जाति विशेष) के द्वारा अनिरुद्ध का पुत्र (वज्र) रोक दिया गया।।486।।
यहाँ भिल्ल समूहों का वज्रविषयक क्रोध अपने आक्षेप इत्यादि के द्वारा उछिप्त और दान्ध कठोर वाक्य की उत्पत्ति इत्यादि से अनुमित गर्व, असूया इत्यादि द्वारा परिपुष्ट होता हुआ अपने ओष्ठों के दबाने, शत्रु-निरोध इत्यादि अनुभावों से अभिव्यक्त होकर रौद्रता के रूप से उत्पन्न होता है।
अथ करुण:विभावैरनुभावैश्च स्वोचितव्यभिचारिभिः ।। २४५।। नीतः सदस्यरस्यत्वं शोकः करुण उच्यते ।