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________________ [ २८० रसार्णवसुधाकरः त्याग कर भी दुःखी लोगों की रक्षा करना, आश्वासन भरी बात कहना, स्थिरता इत्यादि विक्रियाएँ होती है।।२४०-२४१पू.।। यथा (नागानन्दे ४.११) आर्त कण्ठगतप्राणं परित्यक्तं स्वबान्धवैः । त्राये नैनं यदि ततः कः शरीरेण मे गुणः ।।484।। जैसे (नागानन्द ४.१.१ में) अपने बन्धुओं द्वारा त्याग दिये गये तथा कण्ठगत प्राण वाले इसको यदि मैंने नहीं बचाया तो मेरे शरीरधारण से क्या लाभ।।484।। अथाद्भुतम् विभावैरनुभावैश्च स्वोचितैर्व्यभिचारिभिः ।। २४१।। नीतः सदस्यरस्यत्वं विस्मयोऽद्भुततां व्रजेत् । अत्र धृत्यावेगजाड्यहर्षाद्या व्यभिचारिणः ।। २४२।। चेष्टास्तु नेत्रविस्तारस्वेदाश्रुपुलकादयः । ४. अद्भुत रस- अपने अनुकूल विभावों, अनुभाव और व्यभिचारी भावों द्वारा सभा के लोगों (दर्शकों) में रसता को प्राप्त विस्मय (नामक स्थायी भाव) अद्भुत रस कहलाता है। इसमें धृति, आवेग, जड़ता, हर्ष इत्यादि व्यभिचारी भाव होते हैं। नेत्रों का फैलना, पसीना आना, आँसू निकलना, रोमाञ्च इत्यादि चेष्टाएँ होती है।।२४१उ.-२४३पू.।। यथा सोढाहे नमतेति दूतमुखतः कार्योपदेशान्तरं तत्तादृक् समराङ्गणेषु भुजयोर्विक्रान्तमव्याहतम् । भीतानां परिरक्षणं पुनरपि स्वे स्वे पदे स्थापनं स्मारं स्मारमरातयः पुलकिता रेचल्लशिङ्गप्रभोः ।।485।। जैसे अरे! (राजा शिङ्गभूपाल) है, उन 'क्षमाशील के प्रति आप लोग झुक जाइए (तुम लोग झुक, जाओ)' इस प्रकार दूत के मुख से (क्रियमाण) कार्य के उपदेश (को सुनने) के बाद रेचल्लवंशीय ( राजा) शिङ्गभूपाल के शत्रु लोग; उस प्रकार के भीषण युद्धस्थलों पर (उनकी) भुजाओं के अनतिक्रमणीय पराक्रम को, (उसके द्वारा की गयी) भयभीत (शत्रुओं) की रक्षा को, पुनः (उन शत्रुओं को) उनके उनके पदों पर नियुक्त करने को बार-बार याद करके रोमाञ्चित हो जाते थे।।485।। ___ अत्र नायकगुणातिशयजनितो विरोधिनां विस्मयस्मृतिहर्षादिभिर्व्यभिचारिभिरुपचितः पुलकादिभिरनुभावैर्व्यज्यमानोऽद्भुतत्वमापद्यते।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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