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________________ [ २७२ ] रसार्णवसुधाकरः पुरुषगतसाध्वसेन संक्षिप्तो यथा (सरस्वतीकण्ठाभरणेऽप्युद्घृतम्) - लीलाए तुलिअसेले सक्खदु वो राहिआइ थणपट्टे । हरिणो पुढमसमाअमसद्धसव सवेविलो हत्थो ।1468।। ( लीलया तुलितशैलो रक्षतु वो राधायाः स्तनपृष्ठे । हरेः प्रथमसमागमसाध्वसवशवेपनशीलो हस्तः ॥ ) पुरुषगत भय से संक्षिप्त शृङ्गार जैसे लीलापूर्वक पर्वत को उठाने वाला कृष्ण का वह हाथ जो राधिका के स्तनों के ऊपरी भाग पर प्रथम समागम के समय भय के कारण काँप रहा है, तुम लोगों की रक्षा करे | 1468 ।। यहाँ प्रथम समागम के समय के भय के कारण राधा के स्तनों पर रखा गया हाथ काँप रहा है। अतः यहाँ भय के कारण संक्षिप्त सम्भोग शृङ्गार है। स्त्रीगतसाध्वसात् संक्षिप्तो यथा ( कुमारसम्भवे ८/८) - चुम्बनेष्वधरदानवर्जितं सन्न हस्तमदयोपगूहने । श्लिष्टमन्मथमपि प्रियं प्रभोदुर्लभप्रतिकृतं वधूरतम् ।।469।। स्त्रीत भय से जैसे (कुमारसम्भव ८/८ में) जब शङ्कर जी चुम्बन लेना चाहते थे तो वह (पार्वती) अपना अधर ही नहीं देती थी और जब वे उन्हें कसकर अपनी छाती से लगा लेना चाहते थे तो वह धीरे-धीरे स्तनों पर हाथ रख कर उस आलिङ्गन को प्रगाढ़ नहीं होने देती थीं (अर्थात् स्वयं भी उनको अपनी छाती से चिपका नहीं लेती थीं)। इस प्रकार सहयोगविहीन तथा कष्टसाध्य नववधू का सम्भोग भी शङ्कर जी को बहुत प्रिय लग रहा था । । 469 ।। अथ सङ्कीर्ण:सङ्कीर्णस्तुभवेद्यत्र सङ्कीर्णमानः सम्भोगः किञ्चित् पुष्पेषुपेशलः । (२) सङ्कीर्ण सम्भोग शृङ्गार- व्यर्थ स्मरण इत्यादि के द्वारा जहाँ (सम्भोग ) सङ्कीर्ण (अत्यधिक विस्तार को प्राप्त ) हो जाता है, वह कामक्रीडा-कुशल ( सम्भोग ) (सङ्कीर्णमान) सङ्कीर्ण सम्भोग कहलाता है ।। २२३उ. - २२४५।। यथा - व्यलीकस्मरणादिभिः ।। २२३।। विमर्दरम्याणि समत्सराणि विजेभिरे तैर्मिथुनै रतानि । वैयात्यविस्रम्भविकल्पतानि मानावसादाद् विशदीकृतानि ।। 470 ।। जैसे - मसलने से रमणीय, मत्सर (तृप्तता ) से रहित, निर्लज्जता और विश्वास के कारण अनिश्चित तथा मान और सुस्ती के कारण विस्तार किया गया, सुरत उन जोड़ों (युवक और
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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