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रसार्णवसुधाकरः
से विद्यमान रति इत्यादि स्थायिभाव पानक रस- न्याय से चर्वणा को प्राप्त होता हुआ ( अनौचित्य और विभिन्न प्रकार के विप्लवों से रहित तथा सत्त्व के उद्रेक से) लोकोत्तर चमत्कार से युक्त आनन्द (परमानन्द) के समान कन्दलित होता हुआ रसरूपता को प्राप्त करता है (सहृदय भावकों) द्वारा अनुभव किया जाता है।
एवञ्च भुक्तिव्यक्तिपक्षयोरुभयोरपि सामाजिकानां रसाश्रयत्वोपपत्तेरन्यतरपक्षपरिग्रहादुदास्महे ।
इस प्रकार (भट्टनायक के) भुक्तिवाद और (अभिनवगुप्त के) अभिव्यक्तिवाद दोनों पक्षों से सामाजिकों में रसाश्रयता को प्राप्त होने से अन्य पक्षों के ग्रहण करने और न करने के प्रति हम उदासीन हैं।
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प्रायेण भारतीयमतानुसारिणां प्रक्रिया तु ( इत्थम्) - लोके कारणकार्यसहकारिरूपतामुपगतैः काव्ये नाट्ये वा रससूक्तिसुधामाधुरीणैर्यथोक्ताभिनयसमेतैर्वा पदार्थत्वेन विभावानुभावसञ्चारिव्यपदेशं प्रापितैर्नायिकानायकचन्द्रचन्द्रिकामलयानिलादिभ्रूविक्षेप
कटाक्षपातस्वेदरोमाञ्चादिनिर्वेदविषादादिरूपैर्वासनात्मकैरात्मसम्बन्धित्वेनाभिमतैर्भावै
धर्मकीर्तिरतानां षडङ्गनाट्यसमयज्ञानां नानादेशवेषभाषाविचक्षणानां निखिलकलाकलापकोविदानां सन्त्यक्तमत्सराणां सकलसिद्धान्तवेदिनां रसभावविवेचकानां काव्यार्थनिहितचेतसां सामाजिकानां मनसि मुद्रामुद्रितन्यायेन विपरिवर्तिता वासिताश्चाभिवर्धिताः स्थायिनो भावाः काव्यार्थत्वेनाभिमताः बाह्यार्थावलम्बनात्मकाः सन्तो विकासविस्तारक्षोभविक्षेपात्मकतया विभिन्ना: स्वरूपेण (रत्युत्साहादिरूपेण सामाजिकैः ) आस्वाद्यमानाः परमानन्दरूपतामानुवन्तीति सकल- सहृदयहृदयसंवेदनसिद्धस्य रसस्य प्रमाणान्तरेण संसाधनपरिश्रमः श्रोतृजनचित्तक्षोभाय न केवलं (प्रत्युत) नोपयोगायेति प्रकृतमनुसरामः।
प्रायः भारतीय (भारत से सम्बन्धित ) मत का अनुसरण करने की प्रक्रिया तो प्रकार है
इस
प्रायः भरत के मतों का अनुसरण करने वाले आचार्यो की (रसचर्वणा - विषयक) प्रक्रिया इस प्रकार है-लोक में कारण और कार्य की सहकारि रूपता की प्राप्ति होने से काव्य अथवा नाटक में रस - विषयक सूक्ति रूपी अमृत की मधुरता से युक्त अथवा यथोक्त अभिनय से समवेत पदार्थता के कारण विभाव, अनुभाव और सञ्चारिभावों से व्यपदिष्ट तथा नायक, नायिका चन्द्रमा, चाँदनी, मलयानिल इत्यादि भ्रूविक्षेप, कटाक्षपात् स्वेद, रोमाञ्च इत्यादि और निर्वेद, विषाद इत्यादि के रूप से प्राप्त कराया गया, वासनात्मक स्वसम्बन्धता से अभिमत भावों द्वारा धर्म कीर्ति में रत, षडङ्गों सहित नाट्यज्ञाता अनेक स्थानानुसार वेष-भाषा के विचक्षण, सम्पूर्ण कलाकलाप के गम्भीर ज्ञाता, मत्सर का त्याग कर देने वाले, सभी सिद्धान्तों के ज्ञाता, रसभाव के विवेचकों और काव्यार्थ में निहित चित्त वाले सामाजिकों के मन में मुद्रामुद्रित न्याय से विपरिवर्तित, वासित तथा अभि स्थायिभाव काव्यार्थता के रूप में अभिमत तथा बाह्यार्थ आलम्बनात्मक होते हुए विकास,