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________________ [ २४२] रसार्णवसुधाकरः अपूर्व आनन्ददायक) षाडव (मधुरादि छ: रसों वाला) नामक रस निष्पन्न होता है उसी प्रकार विभाव इत्यादि के (यथोचित) प्रयोग से आनन्दमिश्रित यह (शृङ्गार इत्यादि) रस निष्पन्न होता है जो भावकों के द्वारा अनुभव किया जाता है।।१६४-१६६पू.।।। ननु, नायकनिष्ठस्य स्थायिप्रकर्षलक्षणस्य रसस्य सामाजिकानुभवयोग्यता नोपपद्यते। अन्यभवस्य तस्यान्यानुभवायोगादिति चेत् सत्यम् । को वा नायकगतं रसमाचष्टे। तथाहि- स च नायको दृष्टः श्रुतोऽनुकृतो वा रसस्याश्रयतामालम्बते। नाद्यः। साक्षादृष्टनायकरत्यादेर्वीडाजुगुप्सादिप्रतीपफलत्वेन स्वादाभावात् । न द्वितीय तृतीयौ। तयोरविद्यमानत्वात्। न यत्रसत्याश्रये तदाश्रितस्यावस्थानमुपद्यते। (शङ्का) नायकनिष्ठ स्थायी भाव के उत्कर्ष लक्षण वाले रस में सामाजिकों के अनुभव की योग्यता नहीं उत्पन्न होती क्योंकि अन्य (नायक) में उत्पन्न (रस) का अन्य (सामाजिकों) के अनुभव से योग नहीं हो सकता। (समाधान)-ठीक है, नायकगत रस का आस्वादन कौन करता है? जैसे कि दृष्ट, श्रुत या अनुकृत वह नायक रस की आश्रयता को प्राप्त होता है। उसमें पहला (दर्शन) वाला नहीं हो सकता, क्योंकि साक्षात् रूप से दृष्ट नायक की रति इत्यादि से उत्पन्न जुगुप्सा इत्यादि प्रतीयमान फल होने के कारण आस्वाद का अभाव होता है। और दूसरा (सुनने) तथा तीसरा (अनुकृत) भी नहीं हो सकता क्योंकि दोनों में (नायक) विद्यमान नहीं होते। क्योंकि आश्रय के न होने पर उसके आश्रित रहने वाले की विद्यमानता नहीं होती। ननु भवतु नामैवम् । तथापि रसस्य नटगतत्वेन सामाजिकानुभवानुपपत्तिरिति चेद्, न। नटे रसम्भवः किमनुभावादिसद्भावेन विभावादिसम्भवेन वा। नाद्यः। अभ्यासपाटवादिनापि तत्सिद्धः। किञ्च सामाजिकेषु यथोचितमनुभावसद्भावेऽपि त्वया तेषां रसाश्रतानङ्गीकारात्। (शङ्का) इस प्रकार की बात मान ली जाय तो भी रस की नटगतता के कारण सामाजिकों में(रस के) अनुभव की प्राप्ति होती है। (समाधान) ऐसी बात नहीं है। नट में रस की उत्पत्ति क्या अनुभाव इत्यादि के होने से होती है अथवा विभावादि की उत्पत्ति द्वारा। (इसमें) पहला (अनुभाव इत्यादि द्वारा रस की उत्पत्ति) नहीं हो सकती क्योंकि अभ्यास की पटुता इत्यादि से भी उसकी सिद्धि (प्राप्ति) हो जाती है। और भी सामाजिकों में यथोचित अनुभाव इत्यादि के होने पर भी तुम्हारे (शङ्का करने वाले) द्वारा उन (अनुभाव इत्यादि) की रसाश्रयता को स्वीकार न करने के कारण भी अनुभाव इत्यादि द्वारा रस की उत्पत्ति नहीं हो सकती। यदि विभावेन तत्रापि किमनुकार्यमालविकादिना (उत) अनुकारिणा स्वकान्तादिना वा। नाद्यः। अनौचित्यात् । नापि द्वितीयः। नटे साक्षाद्दष्टनायकवदश्लीलप्रतीतेः। यदि विभाव से (रस की उत्पत्ति मान ली जाय) तो भी क्या अनुकार्य मालविका इत्यादि द्वारा (रस की उत्पत्ति होती है) अथवा अनुकारी अपनी प्रियतमा इत्यादि द्वारा।
SR No.023110
Book TitleRasarnavsudhakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJamuna Pathak
PublisherChaukhambha Sanskrit Series
Publication Year2004
Total Pages534
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size31 MB
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